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जिज्ञासा समाधान
प्रश्न - एक ओर हम प्रकृति की बात करते हैं, कहा जाता है-जीवो जीवस्य जीवनम्, दूसरी ओर हम अहिंसा की बात करते हैं । यह विरोधाभास क्यों ?
उत्तर—हमारी कठिनाई यही है कि हम किसी बात को सापेक्ष दृष्टि से नहीं देखते। जीवो जीवस्य जीवनम् - यह सापेक्ष बात है। जीव जीव का जीवन है, यह समुद्र में मछली के लिए लागू होता है। वहां एक जीव दूसरे जीव का भोजन है । यह नियम जंगली जानवरों, हिंसक पशुओं पर लागू होता है, मनुष्यों पर नहीं । मनुष्यों के लिए तो कहा गया- मात्स्य न्याय नहीं होना चाहिए। बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है, यह मात्स्य न्याय है । यह सिद्धान्त मनुष्य के लिए नहीं है, उनके लिए है, जिनके पास कोई विकल्प नहीं है। मनुष्य का ग्रंथितंत्र और नाड़ीतंत्र इतना विकसित है कि वह बहुत बड़ा परिवर्तन कर सकता है। उसके लिए यह नियम लागू नहीं है ।
प्रश्न- देश काल की स्थितियां आज बदल रही हैं। ऐसे में कौन-सा रास्ता 'अपनाएं ? आवश्यकता की सीमा क्या हो ?
उत्तर - पंखा आवश्यक हो सकता है, इसमें कोई खास बात नहीं है । किन्तु सुविधा के नाम पर अनावश्यक को आवश्यक न बनाएं। होठों पर लिपस्टिक लगाना, पशुओं को मारकर उनकी खाल जैसी बालों को पहनना, ओढ़ना - यह क्यों आवश्यक है ? बहुत सारी अनावश्यक बातें हैं, जिन्हें इस विज्ञापन की दुनिया ने आवश्यक बना दिया है । हमारी वासनाएं उभारी हैं इन कृत्रिम आवश्यकताओं ने । हम यथार्थ - के आधार पर चलें तो हमारे जीवन की जितनी मौलिक आवश्यकताएं हैं, उन्हें एक आवश्यक सीमा तक तो स्वीकार कर लें, शेष को अस्वीकार करें तो ज्यादा हितकर होगा। एक समय था जब आदमी खुले प्रांगण में रहता था । खुली हवा, खुला प्रकाश । आज सब कुछ कितना बदल गया। बिजली का प्रकाश, पंखे की हवा | प्रकृति से जैसे दूर हो गए। आज ये अनावश्यक चीजें आवश्यक जैसी बन गई हैं, किन्तु चिंतन स्वयं करें कि इनसे हमें लाभ हुआ है या नुकसान ? स्वास्थ्य इनसे सुधरा है या बिगड़ा है ? बीमारियां इन साधनों ने मिटाई हैं या बढ़ाई हैं ? यदि हम इस दृष्टि से सोचेंगे तो सचमुच जीवन की कृत्रिम आवश्यकताओं से मुक्ति की बात समझ में आ जाएगी।
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प्रश्न- क्या विकेन्द्रित अर्थनीति के लिए सत्ता का विकेन्द्रीकरण जरूरी है ? सत्ता केन्द्रित हो और अर्थव्यवस्था विकेन्द्रित - यह संभव है ?
उत्तर—विकेन्दित अर्थव्यवस्था होगी तो शासन भी विकेन्द्रित होगा समाज
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