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हे परम अकिंचन निर्ग्रन्थ देव ! श्री महावीर प्रभो !
आपके पास किचिन्मात्र भी लौकिक विभूतिये नहीं हैं तथापि
आप तीनो लोको के श्रेष्ठ एव सुविख्यात दान शिरोमणि है क्योकि
निरन्तर ही शम-सम की अविनश्वर मणियां लुटाते ही रहते है
आप
ऐसे अचल हिमालय है जो स्वय जल हीन होने पर भी गगा जैसी अगणित सरिताओ का
उग्दम केन्द्र है
और
हम अपार जल - राशि से भरे हुए ऐसे अभागे खारे समुद्र हैं जिनमे से
एक भी नदी निकलती नही है
अतएव
हम भिक्षुक होकर आप से अपना ही स्वरूप मागने आपकी शरण मे आये हैं
परम-पुनीत पच्चीस वे शतक पर भाव-भीनी विनयाञ्जलि अर्पयिता
ज्ञानकुमार हुकमचंद जैन धनोरावाले शिवाजी वार्ड खुरई (जिला सागर) म. प्र.
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