________________
१०६
फल स्वरूप वह प्रथम नरक, में पहुंचा पुन आयु कर पूर्ण । अहँकार मिथ्यात्व आदि सब, विधि के द्वारा होते चूर्ण ।।
१०७ किन्तु भव्य जीवो को निश्चय, सम्यक् दर्शन होता है । इने गिने भव शेप अर्द्ध, पुग्दल परिवर्तन होता है ।।
१०८ कल्याण मूर्ति सम्यक् दर्शन, पमु पचेन्द्रिय पा सकता है । चेतन का भाग-ज्ञान करके, तप से शिवपुर जा सकता है।
कर सिंह की निकट भव्यता
१०९ प्रथम नर्क से निकल पुन , वह सिंह महा विकराल हुआ । हिमगिरि की भीषण अटवी मे, खग-मृग सव का काल हुआ ।।
११० एक दिवस वह कर सिह मृग, पर चढने ही वाला था। दो चारण ऋद्धिधारियो ने, त्योही जादू कर डाला था ।।
१११ जय अजितज्जय जय अमिततेज, मुनि करुणा के अवतार महा । सिंह से वोले-ठहरो! ठहरो!!,तुम को बध का अधिकारकहाँ?।।
पर्याय मूढता के द्वारा तुम, तो अनादि से भटक रहे । तुम आत्म-विपर्यय होकर ही, चहुँगति मे औधे लटक रहे ॥