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का मोम सा कोमल दिल पिघल उठा । उन्होने अहिंसक वाणी मे भूली-भटकी जनता को समझाते हुए कहा
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"दया मानव-धर्म का मूल मंत्र है; दया शून्य धर्म हो ही नही सकता, दूसरों की भलाई में ही अपनी भलाई निहित है । सुख-दुख का अनुभव सब जीवो को एक-सा होता है, इसलिए सव जीवो को अपने सरीखा समझकर स्वप्न मे भी उनका अहित मत करो । सृष्टि की महती कृपा से जो सुविधाये तुम्हे प्राप्त हुई है वे इसलिए कि जिससे तुम अधिक से अधिक भलाई कर सको - न कि बुराई के लिए । दीन-दुखियों को तुम से साहस मिले, न कि भर्त्सना और आफत के सताये तुम से त्राण पा सके, न कि उल्टा कष्ट । प्रकृति के अग जैसे तुम हो, वैसे दूसरे भी है । उनके ताडन-पीड़न का तुम्हे क्या अधिकार ? यदि उनका निर्माण व्यर्थ हुआ है तो इसका फल वे स्वयं भुगतेंगे या उनका भाग्य भुगतेगा अथवा वह जिसने उन्हे उत्पन्न किया ? व्यर्थ चीजो के संहार का विधान आपको सौपा किसने ? आपकी दृष्टि मे जैसे वे व्यर्थ है सभव है आप भी दूसरो की दृष्टि मे व्यर्थ ठहरते हों ? तव क्या होगा ? वे जैसे हैं, वैसे ही जीवन विताना चाहते हैं, उन्हे दीन पशु कहाकर जीना पसन्द है, पर आपके क्रूर प्रहार से आहत होकर स्वर्ग जाना स्वीकार नही । यदि आपने बलिदान द्वारा स्वर्ग भेजने का प्रण ही वना लिया है तो कृपा कर पहिले आप अपने परिवार से ही यह मागलिक कार्य प्रारम्भ कीजिये । वे दीन पशु तो घास खाकर ही जीवन व्यतीत करने मे सन्तुष्ट हैं । अत. "खुद जियो और दूसरो को भी जीने दो " - अपने लिए दूसरो को मत मारो --मत हनन करो। अपनी ताकत और बहादुरी को दूसरो की सहायता और भलाई के लिए काम में लाओ। किसी पर जुल्म करना पाप है, और किसी का जुल्म सहना सब से बड़ा पाप है ।