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विचारो से पैदा हुआ है । दिमाग की अपेक्षा हृदय से निकली चीज अधिक टिकती है, इसीलिये लोग उसे अपनाते भी हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि नि सगवाद सिद्धान्त की सतत प्रवाहशील शीतल धारा है और साम्यवाद सिर्फ समय की देन है। ससार के इतिहास में यदि पहिले-पहल पूजीवाद की खिलाफत कही मिलती है तो वह भगवान महाव वाद मे। महावीरश्री का सातवॉ कदम (धर्मवाद)
धार्मिक क्षेत्र मे भी भ० महावीर स्वामी ने अनेक सशोधन किये थे। उन्होने धर्म सम्वन्धी जनता की दूषित मनोवृत्ति को वदल दिया था। महावीरश्री ने धर्म को आत्मस्पर्शी बनाकर जीवन मे उसकी प्रतिष्ठा की। उन्होने धर्म का जो रूप जनसाधारण के समक्ष प्रस्तुत किया वह बहुत ही सीधा-साधा सरलसार्वजनिक और व्यापक था। उन्होने कहा-“सत्य का ही दूसरा नाम धर्म है और वह बहु सनातन है-अनादि निधन है। जो सनातन नही, वह सत्य नही हो सकता। वह किसी सीमा मे आवद्ध नही है । सत्य को उत्पन्न नही किया जा सकता क्योकि वह कभी मरता ही नही है। सत्य तो सुमेरु की तरह अचल और आकाश की भाँति नित्य और व्यापक है। इसलिए सत्य ही धर्म है । वह कभी और कही नूतन नही हो सकता। वही सत्य उत्कृष्ट मगल स्वरूप है, ऐसा परम उत्कृष्ट मंगल जिसमे अमगल का लेश भी न हो-वास्तविक धर्म कहलाता है। सत्य तो आत्मा की आवाज है, वह आत्मा मे ही रहता है। जो आत्मा की वास्तविकता से अवगत हो जाता है वह धर्म-तत्त्व को जान लेता है-समझ लेता है । वास्तविक धर्म सत्य ही है। उसी सत्य के संरक्षण के लिए बाहरी जितने भी व्रत सयम-नियम पाले