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३८ हे परम ज्योति वीरप्रभो ! . . आप एक ऐसे अनुपम चिन्मय रत्न दीप है
जिसमे आवश्यक्ता नही है वतिका की, तैल की, धूम्र की
तथापि
अपने शाश्वत ज्ञान-प्रकाश से
सम्पूर्ण लोकालोक को आलोकित करते रहते है
अतएव इस पच्चीस सौवी दीपमालिका के पावन पर्व पर
आज
मैं आप की लौ द्वारा ही अपना ज्ञान दीप
प्रकाशित करने आया हूं
परम-पुनीत पच्चीस वे शतक पर भाव-भीनी विनयाञ्जलि
अर्पयिता - रमेशचंद ताराचंद जैन
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