Book Title: Mahapurana Part 3
Author(s): Pushpadant, P L Vaidya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ महापुराण इस अवसरपर, मैं भारतीय ज्ञानपीठके न्यासधारियों, निदेशक भाई लक्ष्मीचन्द्रजी और डॉ. गुलाबचन्द का हृदयसे अनुगृहीत हूँ कि उन्होंने विभिन्न स्तरोंपर इस कार्यको गति दी। मूर्तिदेवी ग्रन्थमालाके वर्तमान सम्पादक श्रद्धेय पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्री और डॉ. ज्योतिप्रसाद जैनके प्रति कृतज्ञ होना मेरा कर्तव्य है कि जिनके सम्पादनमें इसका प्रकाशन हो रहा है। अपभ्रंशकाव्य कृतियों के अनुवादकी प्रेरणा देनेवाले श्रद्धेय प. फुलचन्द्रजी शास्त्रीका कृतज्ञस्मरण कर मैं सुखका अनुभव कर रहा हैं। अनुवादको मुलगामी और शुद्ध बनानेका पूरा प्रयास किया गया है परन्तु अपभ्रंश-जैसी लचीली विकल्प प्रिय भाषा और उसके चरितकाव्योंकी संक्षिप्त और विस्तृत शैलोके कारण कभी-कभी सन्दर्भोको जोड़ना माथापच्चीका काम है, शब्दकी पहचान भी टेढ़ी खीर बन जाती है। इसके अलावा पिछले दशकमें जिन्दगीमें आनेवाले व्यवधानों तथा पुष्पदन्तके इस कथनको दुहरानेवाले कलिमलमलणु कालु विवरेउ णिग्घिणु णिग्गुणु दुण्णयगार जो जो दीसइ सो सो दुज्जणु णिप्फलु नीरसु णं सुक्कउ वणु राउ राउ णं संझहि केरउ" ४।३८ कलियुगके पापोंसे मैला, यह समय अत्यन्त विपरीत है, निर्दय निर्गुण और दुर्नयोंको करनेवाला जोजो दिखाई देता है। (मिलता है ) वह-वह दुर्जन, फलहीन और नीरस, मानो यह दुनिया आदमियोंकी दुनिया नहीं, सूखे पेड़ोंका जंगल है। लोगोंका राग, सन्ध्याके रागके समान है, पल-भरमें, या काम होते ही गायब ! मनहूस क्षणोंके कारण भी कुछ भूलें रह जाना या हो जाना सम्भव है। सहृदय पाठकोंसे निवेदन है कि यदि ऐसी भूलें उनके ध्यानमें आयें तो निस्संकोच उन्हें सूचित करनेका कष्ट करें, जिससे भविष्य में उन्हें ठीक किया जा सके। शान्तिनिवास 114 उषानगर, इन्दौर 452009 20-5-1981 -देवेन्द्र कुमार जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 574