Book Title: Mahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 8
________________ द्वितीयभागस्य विषयानुक्रमणिका विषय पृष्ठ | विषय षड्विंशतितम पर्व लिए पहुँचा । चक्रवर्ती उसकी विनयसे चक्रवर्ती भरतने विधिपर्वक चक्ररत्नकी बहुत प्रसन्न हुए। ४५-५० पूजा की और फिर पुत्रोत्पत्तिका उत्सव समुद्रका विविध छंदों द्वारा विस्तृत मनाया। नगरीकी सजावट की गई। वर्णन । अन्तमें कवि द्वारा पुण्यका माहात्म्य मनन्तर दिग्विजयके लिए उद्यत हुए। वर्णन । उस समय शरद ऋतुका विस्तृत वर्णन । ___ एकोनत्रिशत्तम पर्व १-७ दिग्विजयके लिए उद्यत चक्रवर्तीका अनन्तर चक्रवर्ती दक्षिण दिशाकी ओर वर्णन । तत्कालोचित सेनाकी शोभाका आगे बढ़े। मार्गमें अनेक राजाओंको वश वर्णन । करते जाते थे। बीचमें मिलनेवाले विविध ७-६ पूर्व दिशामें प्रयाणका वर्णन । गंगा देशों, नदियों और पर्वतोंका वर्णन । ६२-७१ का वर्णन । ६-१७ दक्षिण समुद्र के तटपर चक्रवर्ती ने अपनी समस्त सेना ठहराई। वहांकी प्राकृतिक सप्तविंशतितम पर्व शोभाका वर्णन । चक्रवर्तीने रयके द्वारा सारथी द्वारा गंगा तथा बनकी शोभा दक्षिण समुद्र में प्रवेश कर वहांके अधिपति का वर्णन। १८-२५ व्यंतरदेवको जीता। ७२-८० हाथी तथा घोड़ों प्रादि सेनाके अंगोंका त्रिंशत्तम पर्व वर्णन । २६-३२ सम्राट् भरत दक्षिण दिशाको विजय अष्टाविंशतितम पर्व कर पश्चिमकी ओर बढ़े। वहां विविध दूसरे ही दिन प्रातःकाल होते ही दिग्वि वनों, पर्वतों और नदियोंकी प्राकृतिक जयके लिए पागे प्रयाण किया। चक्ररत्न सुषमा देखते हुए वे बहुत ही प्रसन्न हुए। उनके मागे-आगे चल रहा था। तात्कालिक क्रमशः वे विन्ध्य गिरिपर पहुँचे। उसकी सेनाकी शोभाका वर्णन । क्रमशः चलकर बिखरी हुई शोभा देखकर उनका चित्त वे गंगाद्वारपर पहुँचे। वहां वे उपसमुद्रको बहुत ही प्रसन्न हुआ। वहीं उन्होंने अपनी देखते हुए स्थलमार्गसे गंगाके किनारेके सेना ठहराई। अलेक वनोंके स्वामी उनके उपवनमें प्रविष्ट हुए। वहीं सेनाको ठह पास तरह-तरहको भेंट लेकर मिलने के लिए राया। अनन्तर समुद्र के किनारेपर पहुँचे, . पाये। भरतने सबका यथोचित सन्मान वहां समुद्रका विस्तृत वर्णन। ३३-४४ किया। समुद्रके किनारे-किनारे जाकर वे भरत चक्रधर लवणसमुद्र में स्थलकी पश्चिम लवण-समुद्रके तटपर पहुंचे। वहां तरह वेगसे आगे बढ़ गये। बारह योजन उन्होंने दिव्य शस्त्र धारणकर पश्चिम समद्र मागे चलकर उन्होंने अपने नामसे चिह्नित में बारह योजन प्रवेश किया और व्यन्तएक बाण छोड़ा, जोकि मागध देवकी सभामें राधिपति प्रभास नामक देवको वश में किया। पहुँचा । पहले तो मागधदेव बहुत बिगड़ा पुण्यके प्रभावसे क्या नहीं होता? ८१-६५ पर बादमें बाणपर चक्रवर्तीका नाम देख एकत्रिंशत्तम पर्व गर्वरहित हमा। तथा हार, सिंहासन और अनन्तर अठारह करोड़ घोड़ोंके अधिकण्डल साथ लेकर चक्रवर्तीके स्वागतके पति भरत चक्रधरने उत्तरकी मोर प्रस्थान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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