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******************************************* रक्षक होकर संघ की शक्तियों का भक्षण करने लगे। ऐसी हालत, वह भी धर्म के नाम पर, भला इसे एक सत्य धर्म का उपासक कैसे सहन कर सके? श्रीमान् शाह भी स्वच्छन्दता के ताण्डव को सहन नहीं कर सके। यही कारण है कि उन्होंने स्वच्छन्दता को दूर करने के लिये अपना तन, मन, धन सर्वस्व अर्पण कर दिया। क्रियोद्धार में संलग्न होकर विकार को निकाल फेंका। उस समय विरोधी बल ने भी तेजी से प्रतिवाद किया, किन्तु अन्त में विजय तो सत्य ही की होती है, यही हुआ। विरोधियों के विरोध के कारण ये हैं- (१) श्रमण वर्ग का शैथिल्य (२) चैत्यवाद का विकार (३) अहं भाव की श्रृंखला। इन विरोधी बलों ने कई ज्योतिर्धरों को निरुत्साही बना दिये थे। कइयों को अपने फंदे में फंसा लिया था। और कइयों को पराजित कर दिया था। किन्तु श्रीमान् लोकाशाह इन सब विरोधी बलों को धकेलते हुए रास्ता साफ करते गये। और जैन धर्म को फिर से देदीप्यमान बनाते गये। श्रमणवर्ग के शिथिलाचार का प्रबल विरोध किया, तथा सत्य सिद्धांतों का प्रचार किया। धन्य है उन धर्म प्राण लोकाशाह को कि जिन ने धर्म के नाम पर अपने तन, मन, धन और स्वार्थ की बाजी लगा दी, और परार्थवृत्ति धारण कर फिर से जैन धर्म का सितारा चमका दिया। इस प्रकार शिथिलाचार को दूर फेंकने वाले श्रीमान् लोकाशाह कितने वीर पुरुष थे, उनमें धीरता और गम्भीरता कितनी थी, इस विषय में कुछ लिखना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। ऐतिहासिक दृष्टि से एक अंग्रेज लेखिका श्रीमान् शाह के विषय में लिखती है कि -
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