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अखाड़ा जमावे छे। प्रवचन ने बहाने विकथा निन्दा करे छे । भिक्षा ने माटे गृहस्थ ने घरे नहिंजतां उपाश्रय मां मंगावी ले छे। क्रय-विक्रयना कार्यों मां भाग ले छे । नाना बालकों ने चेलां करवा माटे वेचता ले छे । वैदुं करे छे । दोरा धागा करे छे। शासननी प्रभावना ने बहाने लड़ालड़ी करे छे । प्रवचन संभलावीने गृहस्थो पासे थी पैसानी आकांक्षा राखे छे । ते बधामा कोई नो समुदाय परस्पर मलतो नथी । बंधा अहमिंद्र छे । यथा छन्दे वर्ते छे ।” आदि,
इस प्रकार बतला कर अन्त में वे आचार्य ऐसा कहते हैं "आ साधुओ नथी पण पेट भराओनुं टोलुं छे ।” श्रीमान् हरिभद्रसूरि के समय में ही जब स्वच्छन्दता एवं शिथिलता इतनी हद तक अपनी जड़ जमा चुकी थी तब श्रीमान् लोकाशाह के समय तक यह कितनी बढ़ गई होगी, इसका अनुमान पाठक स्वयं ही कर सकते हैं। श्रीमान् लोकाशाह को भी इसी शिथिलाचार को हटाने के लिए क्रान्ति मचानी पड़ी। उनसे ऐसी भयंकर परिस्थिति नहीं देखी गई। उन्होंने देखा, धर्म के नाम पर पाखण्ड हो रहा है। अव्यवस्था, रूढियों के ताण्डव नृत्य, स्वार्थ और विलास का श्रमणों पर अत्यधिक अधिकार हो गया है। इसी के फल स्वरूप जैन धर्म का महत्व एकदम उतर गया। धर्म के नाम पर गरीब और निर्दोष प्रजा पर अत्याचार हो रहा है । कुरूढ़ियें, बहम, अन्धश्रद्धा और सत्ताशाही आदि से जनता त्रास को प्राप्त हो चुकी । शांति के उपासक श्रमण प्रचण्ड बन गये । समाज सर्व संघ के
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