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१३० क्या बत्तीस मूल सूत्र के बाहर का साहित्य मान्य है? ************************************** इससे भी अत्यधिक लाभ प्राप्त करने को पालीताने में सम्पत्तिशाली भक्तों ने रसोड़े भोजनालय खोल रखे होंगे?
___ इस हिसाब से तो श्रेणिक, कोणिक, कृष्ण, सुभूम और ब्रह्मदत्त आदि महाराजा लोग या तो मूर्ख या मक्खीचूस होंगे, जो ऐसे सस्ते सौदे को भी नहीं पटा सके और तो ठीक पर भगवान् महावीर प्रभु का अनन्य भक्त ऐसा सम्राट कोणिक जो प्रभु के सदैव समाचार मंगवाया करता था और इस कार्य के लिए कुछ सेवक भी रख छोड़े थे, वह एक छोटासा मन्दिर भी नहीं बना सका? कितना कंजूस होगा? इसी से तो उसे नरक में जाना पड़ा? यदि वह कम से कम एक भी मन्दिर बनवा देता तो उसे नरक तो नहीं देखनी पड़ती ?
पाठक बन्धुओ! आश्चर्य की कोई बात नहीं, यह सब लीला स्वार्थ देव की है, यह शक्तिशाली देव अनहोनी को भी कर बताता है। अब ऐसी ही पौराणिक गप्प आपको और दिखाता हूँ।
मूर्ति-पूजक बन्धु शत्रुजयपर्वत के समीप की शत्रुजया नदी के लिए इस प्रकार गाते हैं कि -
केवलियों के स्नान निमित्त। इशान इन्द्र आणी सुपक्ति॥ नदी शत्रुजय सोहामणी। भरते दीठी कौतुक भणी॥
अर्थात् केवल ज्ञानियों के स्नान के लिये ईशान इन्द्र स्वर्ग से शत्रुजी नदी लाया, यह देखकर भरतेश्वर को आश्चर्य हुआ। ___क्या अब भी कोई गप्प की सीमा है? हमारे मूर्ति-पूजक बन्धु केवलज्ञानी भाषक सिद्धों को भी स्नान कराकर अपवित्र से पवित्र
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