Book Title: Lonkashah Mat Samarthan
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 201
________________ १६० धर्म दया मे है, हिंसा में नहा ********************************************* पुढवी जीवा पुढो सत्ता, आउ जीवा तहागणी। वाउजीवा पुढो सत्ता, तण रुक्खा स-बीयगा॥७॥ अहावरा तसा पाणा, एवं छक्काय आहिया। एतावए जीवकाए, णावरे कोइ विजइ॥ ८॥ सव्वाहिं अणुजुत्तिहिं, मतिमं पडिलेहिया। सव्वे अक्कंत दुक्खाय, अतो सव्वे अहिंसया॥६॥ एयं खु णाणिणो सारं, जं न हिंसइ किंचणं। अहिंसा समयं चेव, एतावंतं वियाणिया॥१०॥ उड़े अहेय तिरियं, जे केइ तस थावरा। सव्वत्थ विरति कुज्जा, संति णिव्वाण माहियं॥११॥ अर्थात् - पृथ्वी, अप्, तेजस वायु, वनस्पति, बीज सहित तथा त्रस प्राणी, इस तरह छह काय रूप जीव कहे गये हैं, इनके सिवाय संसार में कोई जीव नहीं है। इन सब जीवों को दुःख अप्रिय है, ऐसा युक्तिओं से बुद्धिमान् का देखा हुआ है. अहिंसा और समता ही मुक्ति मार्ग है, ऐसा समझ कर किसी जीव की हिंसा नहीं करे, यही ज्ञानी का सार है। ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक् दिशा में जो जीव रहने वाले हैं उनकी हिंसा से निवृत्ति करने को निर्वाण मार्ग कहा है। (३) "दाणाण सेढे अभयप्पयाणं।" (सूत्रकृतांग सूत्र श्रु० २ अ० ६) । (४) पुनः सूत्रकृतांग सूत्र श्रु० २ अ० १७ में - . "जे इमे तस थावरा पाणा भवंति तेणो सयं समारंभति, णो अण्णेहिं समारंभावेंति, अण्णं समारंभंतं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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