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धर्म दया में है हिंसा में नहीं ********************* *******************
अहिंसैकापि यत्सौख्यं, कल्याणमथवाशिवम्। दत्ते तद्देहिनां नायं, तपः श्रत यमोत्करः॥४७॥ अर्थात्
धर्म तो दयामय है किन्तु स्वार्थी लोग हिंसा का उपदेश देने वाले शास्त्र रच कर जगत जीवों को बलात्कार से नरक में ले जाते हैं यह कितना अनर्थ है? ॥१६॥
___ अपनी शान्ति के लिए या देवपूजा अथवा यज्ञ के लिये जो प्राणी हिंसा करते हैं वह हिंसा उनको शीघ्र ही नरक में ले जाने वाली होती है।।१८॥
देवपूजा, या मंत्र अथवा औषध के लिए अथवा अन्य किसी भी कार्य के लिए की हुई हिंसा जीवों को नरक में ले जाती है।।२७।।
___ जो पापी धर्म बुद्धि में हिंसा करते हैं वे जीवन की इच्छा से विपरीत हैं ।। २६ ॥
यह अहिंसा ही मुक्ति और स्वर्ग लक्ष्मी की दाता है। यही हित करती है और समस्त आपत्तियों का नाश करती है ।।३३।। ___अकेली अहिंसा ही जीवों को जो सुख, कल्याण एवं अभ्युदय देती है, वह तप स्वाध्याय और यमनियमादि नहीं देख सकते हैं॥४७।। - इतने स्पष्ट प्रमाणों से अहिंसामय धर्म ही आत्मा को शांतिदाता सिद्ध होता है। इससे प्राणी हिंसा मय मूर्ति पूजा निरर्थक और अहितकर ही पाई जाती है। यदि आचार्य पं० चतुरसेन जी शास्त्री के शब्दों में कहा जाय तो पाखण्डी की जड़ अधिकांश में मूर्ति-पूजा ही है। इस मूर्ति पूजा के आधार से कितनी ही अंध श्रद्धा फैली हुई है और कई प्रकार की अंध श्रद्धाओं की यह जननी भी है। जितनी हत्या
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