Book Title: Lonkashah Mat Samarthan
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 204
________________ श्री लोकाशाह मत - समर्थन कंचण - मणि सोवाणं, थंभ सहस्सो - सियं भुवण - तलं । जो कारिज जिणहरं, तओ वि तव - संजमो अहिओ ।। (योगशास्त्र भा० पृ० १३७) अर्थात् - सोने व मणिमय पायरी वाला हजारों स्तंभों से उन्नत तले वाला भी यदि कोई जिनमन्दिर बनावे तो उससे भी तप संयम श्रेष्ठ है। (५) योग शास्त्र भाषान्तर आवृत्ति चौथी पृ० १३७ पं० १० में १०८ वें श्लोक का विवेचन करते हुए केशर विजयजी गणि लिखते हैं कि - १६३ " बहेतर छे के प्रथम थीज धर्म निमित्ते आरम्भ न करवो। " दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के ज्ञानावर्णव ग्रन्थ के आठवें सर्ग में अहिंसाव्रत के विवेचन का कुछ अवतरण पढ़िये अहो व्यसन विध्वस्तैर्लोकः पाखण्डिभिर्बलात् । नीयते नरकं घोरं, हिंसा शास्त्रोपदेशकः ॥१६॥ शान्त्यर्थं देवपूजार्थं यज्ञार्थमथवा नृभिः । कृतः प्राणभृतां घातः, पातयत्यविलंबितं ॥ १८ ॥ चारु मंत्रौषधानांवा, हेतो रन्यस्यवा क्वचित् । कृता सती नरैर्हिसा, पातत्य विलंबितं ॥ २७ ॥ धर्मबुद्धयाऽधमैः पापं जंतु घातादि लक्षणम् । क्रियते जीवितस्यार्थे पीयते विषमं विषं ॥ २६ ॥ अहिंसैव शिवं सूते दत्तेच, त्रिदिवश्रियं । अहिंसैव हितं कुर्याद् व्यसनानि निरस्यति ॥ ३३ ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International - www.jainelibrary.org

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