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मूर्तिपूजक प्रमाणों से मूर्त्ति पूजा की अनुपादेयता
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किन्तु जब मनुष्य मतमोह में पड़ जाता है तब हेय को छोड़ने योग्य समझ कर भी नहीं छोड़ता है, यही हाल ऊपर में सामायिक को श्रेष्ठ कहने वाले श्री विजयानंदजी का भी हुआ। पहले सामायिक की प्रशंसा की और फिर ये ही आगे बढ़ कर सामायिक वाले श्रावक को सामायिक छोड़ कर पूजा के लिए फूल गूंथने आदि की आज्ञा प्रदान करते हैं। देखिये -
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"पूजादिक सामग्री के अभाव से द्रव्य पूजा करणे असमर्थ है, इस वास्ते सामायिक पारके काया से जो कुछ फूल - गूंथनादिक कृत होवे सो करे । "
प्रश्न- सामायिक त्याग के द्रव्य पूजा करणी उचित नहीं ? उत्तर - सामायिक तो तिसके स्वाधीन है। चाहे जिस वखत कर लेवे, परन्तु पूजा का योग उसको मिलना दुर्लभ है, क्यों कि - पूजा का मंडाण तो संघ समुदाय के आधीन है, कदेई होता है, इस वास्ते पूजा में विशेष पुण्य है। (जैन तत्त्वादर्श पृ० ४१७ ) इस प्रकार वे ही विजयानंदजी यहाँ भावस्तव रूप सामायिक को त्याग कर युक्ति से सावद्य पूजा में प्रवृत्त होने की आज्ञा प्रदान करते हैं। एक सामायिक का उदय आना दुर्लभ कहता है तो दूसरा उल्टा पूजा का योग कठिन बताता है। इस प्रकार मन गढ़त लिख डालने वालों को क्या कहा जाय ? श्रीमान् विजयानंद सूरि के मन्तव्यानुसार तो सामायिक में ही फूल गूंथे लेने चाहिये, क्योंकि इन्हीं का कथन ( सम्यक्त्व शल्योद्धार में ) है कि - फूलों से पूजना फूलों की दया करना है । आश्चर्य तो यह है कि - सम्यक्त्व शल्योद्धार में तो इस प्रकार लिखा और जैन तत्त्वादर्श में सामायिक में द्रव्य पूजा का निषेध भी कर दिया।
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