Book Title: Lonkashah Mat Samarthan
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 198
________________ श्री लोकाशाह मत-समर्थन . १५७ ********************************************** त्याग कर भाव पूजा रूप सामायिक कर आत्म साधना करनी चाहिए। श्रावकों की सामायिक थोड़े समय का देशविरति चारित्र है, अतएव इसकी आराधना करना स्वल्प काल का चारित्र धर्म पालना है। स्वयं विजयानंद सूरि स्वीकार करते हैं कि - "जब श्रावक सामायिक करता है, तब साधु की तरह हो जाता है, इस वास्ते श्रावक सामायिक में देव स्नात्र, पूजादिक न करें, क्योंकि भाव स्तव के वास्ते द्रव्य स्तव करना है सो भावस्तव सामायिक में प्राप्त हो जाता है, इस वास्ते श्रावक सामायिक में द्रव्यस्तव रूप जिन पूजा न करें।" (जैनतत्त्वादर्श पृ० ३७१) इसके सिवाय ‘पर्युषण पर्वनी कथाओं' के पृ० ६६ में भी लिखा है कि - ___ 'वली सामायिक करता थकां सावध योग नो त्याग थाय, माटे सामायिक श्रेष्ठ छे तथा सामायिक करनार ने मात्र पूजादिक ने विषे पण अधिकार नथी, अर्थात् द्रव्यस्तव करण नी योग्यता नथी, ते सामायिक उदय आव● महा दुर्लभ छ।' इन दो प्रमाणों के सिवाय सामायिक की उत्कृष्टता में और भी प्रमाण दिये जा सकते हैं, किन्तु ग्रन्थ गौरव के भय से यहाँ इतना ही बताया जाता है, इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि मूर्ति पूजक भाइयों के कथन से भी मूर्ति पूजा से सामायिक अत्यधिक श्रेष्ठ है। एक साधारण बुद्धि वाला भी समझ सकता है कि - मूर्ति पूजा सावद्य-हिंसाकारीव्यापार है और सामायिक में सावध व्यापार का त्याग हो जाता है, इस नग्न सत्य को मूर्ति पूजक भी स्वीकार कर चुके हैं, इसलिए मूर्ति पूजक समाज के साधुओं को चाहिए कि - श्रावकों को सावध मूर्ति पूजा छोड़ कर सावद्य त्याग रूप सामायिक करने का ही उपदेश करे, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214