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श्री लोकाशाह मत-समर्शन ****************************************
व्यापारिक समाज तो सदैव सस्ते सौदे को ही पसन्द करती है। अधिक खर्च कर थोड़ा लाभ प्राप्त करना और थोड़े खर्च से होने वाले अधिक लाभ को छोड़ देना व्यापारियों के लिये तो उचित नहीं है। इसलिए इन्हें अन्य तीर्थों में जाना एक दम बन्द कर देना चाहिए। अब जरा सम्हल कर पढ़िये - | चरण रहियाई संजय, विमल गिरि गोयमस्स गणिओ। पडिलाभेय मेग साहणा, अड्ढी दीव साहू पडिल भई।। __अर्थात् - चारित्र से रहित (केवल वेषधारी) ऐसे साधु को भी विमल गिरि पर गौतम गणधर के समान समझना चाहिए। ऐसे एक साधु को प्रतिलाभने से अढ़ाई द्वीप के सभी साधुओं को प्रतिलाभने का फल होता है।
(ऐसा ही फल विधान श्रावकों के लिए भी है।)
उक्त गाथा से हमारे मूर्ति पूजक बन्धुओं के लिए अब बिलकुल सरल मार्ग हो गया है, न तो गृहस्थाश्रम छोड़ने की आवश्यकता है
और न मेरु समान कठिन पंच महाव्रत पालन भी आवश्यक है, निरर्थक कष्ट सहन करने की आवश्यकता ही क्या है? जबकि केवल शत्रुजय पर्वत पर साधु वेष पहन कर कोई भी द्रव्यलिंगी चला आवे तो वह गौतम गणधर जैसा बन जाता है, इससे अधिक तब चाहिये ही क्या? और भावुक भक्तों को भी किसी ऐसे द्रव्यलिंगी को बुलाकर शीघ्र ही मिष्ठान्न से पात्र भर देना चाहिए, बस हो गया बेड़ा पार। विश्व भर के सुविहित साधुओं को दान देने का महाफल सहज ही प्राप्त हो गया, कहिये कितना सस्ता सौदा है? क्या ऐसा सहज सुखद, सस्ते से सस्ता और महान् लाभकारी मार्ग कोई सुविहित बता सकता है? शायद इसी महान् लाभ के फल विधान को जानकर
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