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श्री लोकाशाह मत-समर्थन
१३१ **********求***********安********空********** करना चाहते हैं, सो भी ऊर्ध्वलोक स्वर्ग के जल से ही! वाह, कहीं केवली भी इस मनुष्य लोक के जल से नहा सकते हैं? किन्तु इशानेन्द्र ने एक भूल तो अवश्य की उन्हें यह नहीं सूझा कि इस स्वर्ग-गंगा को मैं मनुष्य लोक में ले जाकर पृथ्वी पर क्यों पटक ? इससे तो वह इस लोक की साधारण नदियों जैसी हो गई? कम से कम पृथ्वी से दो चार हाथ तो ऊंची अधर रखना था, जिससे स्वर्ग-गंगा का महत्त्व भी बना रहता, शासन प्रभावना भी होती और आज विचारकों को यह बात गप्प नहीं जान पड़ती। आज के सभी विचारक प्रायः इस बात को चंडुखाने की गप्प से अधिक मानने को तैयार नहीं है। इसके सिवाय इस स्वर्ग गंगा (शत्रुजय नदी) ने भी अपना स्वभाव साधारण नदी जैसा बना लिया, विरोधी तो दूर रहे, पर ८-१० वर्ष पहले कुछ भक्तों को भी अपने विशाल पेट में समा लिये। फिर क्यों कर इसे स्वर्गवासिनी कही जाय?
हाँ, जिस परम पुनीत नदी में केवल ज्ञानी भी स्नान कर पवित्र होते हैं, वहाँ सामान्य साधु स्नान कर कर्म मल रहित होने की चेष्टा करें, इसमें तो कहना ही क्या है? किन्तु जब हम इन लोगों के सिद्धान्त देखते हैं तब ऐसा मालूम होता है कि ये लोग भी साधुओं को स्नान करना नहीं मानते, किन्तु साधुओं के लिए स्नान का निषेध करते हैं और स्नान से संयम भंग होना मानते हैं, वे ही ऐसे गपोड़ों पर विश्वास कर इनको सत्य माने, यह कहां का न्याय है?
___ बन्धुओ! यह तो किंचित् नमूना मात्र ही है किन्तु यदि सारे शत्रुजय महात्म्य को भी गपौड़ा शास्त्र कहा जाये तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं है।
ऐसे गपौड़े शास्त्रों को किस प्रकार आगम वाणी मानी जाय?
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