Book Title: Lonkashah Mat Samarthan
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 193
________________ १५२ मूर्तिपूजक प्रमाणों से मूर्ति पूजा की अनुपादेयता ********************************************* वंचित रखता है, सेवन कराने वाली है, जिसमें प्रभु आज्ञा भंग रूप पाप रहा हुआ है, अतएव त्यागने योग्य ही है। (४) श्री सागरानंदसूरिजी दीक्षानुं सुन्दर स्वरूप' नाम पुस्तिका के पृ० १४७ पर लिखते हैं कि - श्री जिनेश्वर भगवाननी पूजा वगेरे नुं फल चारित्र धर्मनीआराधना ना लाखमां अंशे पण नथी आवतुं, अने तेथी तेवी पूजा आदिने छोड़ी ने पण भाव धर्म रूप चारित्र अंगीकार करवा मां आवे छे।' ___अब हमारे पाठक स्वयं विचार कर निर्णय करें कि - कहाँ तो धर्म का अंग चारित्राराधन और कहां उसके लाखवें अंश में भी नहीं आने वाली मूर्ति पूजा? वास्तव में तो मूर्ति पूजा में अनन्तवें भाग भी धर्म नहीं है, किन्तु अधर्म ही है, अतएव त्यागने योग्य है। (५) पुनः सागरानन्दसूरिजी इसी ग्रन्थ के पृ० १७ में एक चौभंगी द्वारा भाव निक्षेप को ही वन्दनीय, पूजनीय सिद्ध करते हैं, देखिये वह चौभंगी___ 'एक तो चांदी नो कटको जो के चोखी चांदी नो छे, छतां रुपियां नी महोर छाप न होय तो तेने रुपियो कहवाय नहीं, अने ते चलण तरीके उपयोग मां आवी शके नहीं? बीजो रुपियानी छाप त्रांबा ना कटका ऊपर होय तो पण ते त्रांबा नो कटको रुपिया तरीके चाली शके नहीं, त्रीजो त्रांबा ना कटका ऊपर पैसानी छाप होय तो ते रुपियो नज गणाय, अने चोथो भांगोज एवो छे के जेमां चांदी चोखी अने छाप पण रुपियानी साची होय, तेनोज दुनियां मां रुपिया तरीके व्यवहार थइ शके, अने चलण मां चाले।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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