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श्री लोकाशाह मत - समर्थन
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भक्त था, सदैव प्रभु के समाचार मंगवाया करता था । सम्वाद प्राप्त करने को उसने कितने ही नौकर रख छोड़े थे। जो कि प्रभु के विहारादि के समाचार हमेशा पहुँचाया करें ऐसा औपपातिक सूत्र में कथन है, किन्तु ऐसे स्थान पर भी यह नहीं लिखा कि कोणिक महाराज ने एक छोटासा भी मन्दिर बनाया हो, या मूर्ति के दर्शन पूजन करता हो, इस पर से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि मूर्ति-पूजा शास्त्रोक्त नहीं है ।
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हमारे इतने प्रयास से मूर्ति - पूजा अनावश्यक और वीतराग धर्म के विरुद्ध प्रमाणित हो चुकी, तथापि अब मूर्त्ति पूजा की हेयता दिखाने को मूर्ति - पूजक समाज के मान्य ग्रन्थों के ही कुछ प्रमाण देकर यह अनावश्यक सिद्ध की जाती है।
(१) सर्व प्रथम श्री विजयानंद सूरिजी के निम्न प्रश्नोत्तर को ध्यान पूर्वक पढ़िये ।
प्रश्न - तुमने कहा है जो सूत्र में कथन करा है जो प्ररूपण करे, जो पुनः सूत्र में नहीं है और विवादास्पद लोगों में है। कोई कैसे कहता है और कोई किस तरह कहता है, तिस विषयक जो कोई पूछे तब गीतार्थ को क्या करना उचित है ?
उत्तर - जो वस्तु अनुष्ठान सूत्र में नहीं कथन खरा है, करने योग्य चैत्य वन्दन आवश्यकादि वत् और प्राणातिपात की तरह सूत्र में निषेध भी नहीं करा है, और लोगों में चिरकाल से रूढि रूप चला आता है, सो भी संसार भीरू गीतार्थ स्वमति कल्पित दूषणे करी दूषित न करे । ( अज्ञान तिमिर भास्कर पृ० २६४ ) इस उत्तर में यह स्पष्ट कहा गया है कि - चैत्यवंदन सूत्र में नहीं कहा है, पुनः स्पष्टीकरण देखिये -
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