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श्री लोकाशाह मत-समर्थन ※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※ 'व्यन्तरायतन' नहीं करके स्वामीजी ने जो 'जिन मन्दिर' अर्थ किया यह इनकी उक्ति से भी बाधित होता है क्योंकि -
(अ) उपासकदशांग में जो चैत्य शब्द आया है, वही चैत्य शब्द समवायांग में भी आया है, जब उपासकदशांग में ही स्वामीजी के कथनानुसार मूर्ति पूजा का लेख नहीं है तब समवायांग में केवल इसी शब्द से प्रत्यक्ष और खुला मूर्ति पूजा का पाठ कैसे हो सकता है? अतएव उपासकदशांग की तरह समवायांग का पाठ भी इसमें प्रमाण नहीं हो सकता।
(आ) स्वामीजी ने उपासकदशांग में अपने मत के अनुकूल 'अरिहंत चेइयाई' पाठ माना है, किन्तु स्वामीजी के दिये हुए इस समवायांग के प्रमाण पर विचार करने से वह भी उड़ जाता है, क्योंकि__स्वामीजी तथा इनके अनुयायिओं की मान्यतानुसार जो अरिहंत चेइयाई' यह शब्द असल मूल पाठ का होता तो इससे मूर्ति वन्दन नहीं मान कर इन्हें समवायांग के केवल 'चेइयाई' शब्द* (जो व्यन्तरायतन अर्थ को बताने वाला है) की और आशा से तरसना नहीं पड़ता। समवायांग के पाठ का प्रमाण देना ही यह बता रहा है कि उपासकदशांग में मूर्ति पूजा का वर्णन ही नहीं है, या प्रक्षिप्त (अरिहंत चेइयाइं) पाठ में खुद इन्हें भी संदेह ज्ञात हुआ है। इस पर से भी उक्त पाठ क्षेपक सिद्ध होता है।
(इ) स्वामीजी के लिखे हुए 'उपासकदशांग में मूर्ति पूजा का पाठ नहीं होकर समवायांग में है' इससे तो उल्टी एशियाटिक सोसायटी कलकत्ता वाली प्रति का अरिहंत चेइयाइं बिना का पाठ ठीक जान पड़ता है, क्योंकि उपासकदशांग और समवायांग इन दोनों में मात्र
* चैत्यं-व्यन्तरायतनं, समवा० टीका पत्र १०८ सूत्र १४१ आ० स०।
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