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श्री लोकाशाह मत - समर्थन
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धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलौकिक, पारलौकिक ऋद्धि विशेष, उपासकों के शीलव्रत, वेरमणव्रत, गुणव्रत प्रत्याख्यान, पौषधोपवास व्रत, अंगीकार करना, सूत्रग्रहण, उपद्यानादि तप, उपासक प्रतिमा, उपसर्ग, संल्लेहणा, भक्तप्रत्याख्यान, पादोपगमन, उच्चकुल में जन्म, फिर बोधि (सम्यक्त्व) लाभ, अन्तक्रिया करना ये सब वर्णन किये जाते हैं।
इस सूत्र में कहीं भी मूर्ति पूजा का नाम तक नहीं है, न मन्दिर बनवाने या उसके मन्दिर होने का ही लेख है, फिर ये कैसे कहा जाता है कि समवायांग में प्रत्यक्ष है ? विचार करने पर मालूम होता है कि 'चेइयाई' जो नगरी के साथ उद्यान और इसमें रहे हुए 'व्यन्तरायतन' के वर्णन में आया है, इसीसे उन श्रावकों के मन्दिर होने या मूर्ति पूजने का कहते हैं, किन्तु इनका यह कथन भी एकदम असत्य है। क्योंकि जिस प्रकार उपासकदशांग की सूची बताई गई है उसी प्रकार अन्तकृत दशांग अनुत्तरोपपातिकदशा, विपाक इन की भी सूची दी गई है सभी में एक समान पाठ आया है, देखिये
अंतगडाणं णगराई, उज्जाणाई, 'चेइयाई ' अणुत्तरोवाइयाणं णगराई, उज्जाणाई, 'चेइयाई' सुहविवागाणं णगराई, उज्जाणाइं, 'चेइयाई' दुहविवागाणं णगराई, उज्जाणाइं, 'चेइयाई'
अर्थात् - अंतक्रतो, अनुत्तरोपपातिकों, सुखान्तकरों और दुःखान्तकरों के नगर, उद्यान, चैत्य थे, इस प्रकार आये हुए चैत्य शब्द से यह प्रश्न होता है कि -
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क्या इन सभी के बनाये हुए जिन मन्दिर थे, ऐसा अर्थ माना जायगा ? नहीं, कदापि नहीं! यहां का निराबाध अर्थ जहां अन्तकृतादि
रहते थे वहां व्यन्तरायतन था यही उपयुक्त और संगत है। यहां आये
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