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श्री लोकाशाह मत-समर्थन ***************************************** जीताचारानुसार करते हैं और इसी प्रकार अग्नि संस्कार भी जीताचार के साथ साथ यह क्रिया अत्यंत आवश्यक है, इस जीताचार के कारण ही तो तीर्थंकर के मुंह की अमुक ओर की अमुक दाढ़ा अमुक इन्द्र ही लेता है, यह सब क्रिया पद के अनुसार जीताचार की है। फिर उस समय की जाने वाली स्नान आदि क्रियाओं को धार्मिक क्रिया कैसे कह सकते हैं? यदि इन क्रियाओं को धार्मिक क्रिया मानी जाय तो फिर भाव निक्षेप (साक्षात्) के साथ ये क्रियाएं क्यों नहीं की जाती हैं? देखिये द्रव्य निक्षेप को वन्दनीय मानने में निम्न बाधक कारण उपस्थित होते हैं -
(अ) गृहस्थावस्था में रहे हुए तीर्थंकर प्रभु अपने भोगावली कर्मानुसार गृहस्थ सम्बन्धी सभी कार्य जैसे स्नान, मर्दन, विलेपन, विवाह, मैथुन आदि करते हैं, उस समय वे गुणपूजकों के लिए भाव निक्षेप की तरह वन्दनीय कैसे हो सकते हैं?
(आ) जो वर्तमान में वैरागी होकर भविष्य में साधु होने वाला है, जिसके लिए दीक्षा का मुहूर्त निश्चित हो चुका है, दो चार घड़ी में ही महाव्रती हो जायगा विश्वास पात्र भी है वह द्रव्य निक्षेप से साधु अवश्य है, किन्तु दीक्षा लेने के पूर्व भाव निक्षेप वाले साधु की तरह उसके लिये भी वन्दन नमस्कारादि क्रिया क्यों नहीं की जाती? वाहन पर चढ़ाकर क्यों फिराया जाता है। भोजन का निमंत्रण क्यों दिया जाता है ? कारण यही कि वह अभी भाव निक्षेप से साधु नहीं है। गृहस्थ है।
(इ) द्रव्यलिंगी आचार भ्रष्ट ऐसे साधु का संघ बहिष्कार क्यों कर देता है? क्या वह द्रव्य निक्षेप में नहीं है। अवश्य है, किन्तु भाव शून्य है अतएव आदरणीय नहीं होता।
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