________________
। [32] ********************************************** देता नथी। गुरुओना दाह स्थलों पर पीठो चणावे छ । शासननी प्रभावना ने नामे लड़ालड़ी करे छे। दोरा धागा करे छ। आदि"
इस प्रकार श्री हरिभद्राचार्य ने उस समय की श्रमण समाज का चित्र खींचा है। साथ ही इन बातों का खण्डन करते हुए लिखते हैं कि “ये सब धिक्कार के पात्र हैं, इस वेदना की पुकार किसके पास करें।" इससे स्पष्ट मालूम होता है कि उस जमाने में शिथिलाचार प्रकट रूप से दिखाई देने लगा था। पूजा वगैरह के बहाने धन वगैरह भी लिया जाता था। यह हालत चैत्यवाद के नाम पर होने वाली शिथिलता का दिग्दर्शन करा रही है, किन्तु उन साधुओं की निजी चर्या कैसी थी, इसका पता भी श्रीमान् हरिभद्रसूरि जी के शब्दों में “संबोध प्रकरण" नामक ग्रन्थ से और जिनचन्द्रसूरि के “संघपट्टक' में बहुत-सा उल्लेख मिलता है। उनमें से कुछ अंश यहां उद्धत करते हैं, जिससे यह स्पष्ट हो जाय कि उस समय साधुओं की शिथिलता कितनी अधिक बढ़ गई थी।
“ए साधुओ सवारे सूर्य उगतांज खाय छे। बारम्बार खाय छ। माल मलीदा अने मिष्टान्न उड़ावे छे। शय्या, जोड़ा, वाहन, शस्त्र अने तांबा वगेरेना पात्रो पण साथे राखे छ। अत्तर फुलेल लगावे छे। तेल चोलावे छ। स्त्रीओनो अति प्रसंग राखे छे। शालामां के गृहस्थीओना घरमां खाजां वगेरेनो पाक करावे छे। अमुक गाम मारु, अमुक कुल मारु, एम
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org