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श्री लोकाशाह मत-समर्थन
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कहलाता है। इनमें जो स्थान सभी पापों से निवृत्त न होना है वह आरम्भ स्थान है, वह अनार्य तथा समस्त दुःखों का नाश नहीं करने वाला एकान्त मिथ्या और बुरा है एवं दूसरा स्थान जो सब पापों से निवृत्ति है वह अनारम्भ स्थान है वह आर्य तथा समस्त दुःखों का नाश करने वाला एकान्त सम्यक् और उत्तम है। तीसरा स्थान जो कुछ पापों से निवृत्ति और कुछ से अनिवृत्ति है वह आरम्भ नोआरम्भ स्थान कहलाता है यह भी आर्य तथा समस्त दुःखों का नाशक एकान्त सम्यक् और उत्तम है।
___ (३) योगशास्त्र में हेमचन्द्राचार्य ने सम्यक्त्व पूर्वक बारह व्रत का विवेचन किया है, देखो प्रकाश १ अंतिम दश श्लोक से दूसरे प्रकाश तक।
(४) त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र में भी श्री हेमचन्द्राचार्य ने प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ स्वामी की देशना का वर्णन करते हुए गृहस्थ धर्म के सम्यक्त्व सहित बारह व्रत की विस्तृत व्याख्या की है।
(५) ऐसे ही उपासकदशांग सूत्र में आदर्श रूप दश श्रावकों के जीवन में उपादेय नैतिक, धार्मिक क्रिया का शिक्षा लेने योग्य विस्तृत इतिहास बताया गया है, भगवती, ज्ञाताधर्मकथा आदि सूत्रों में भी श्रावक धर्म के पालकों का इतिहास उपलब्ध होता है। ___इस प्रकार जहां कहीं भी श्रावक धर्म का निरूपण और इतिहास मिलता है उसका मतलब सूत्रकृतांग के सदृश ही है। सिवाय इसके गृहस्थ धर्म के विधि नियमादि का उपदेश कर श्रमण धर्म के लिये विधि विधान बतलाने वाले अनेक शास्त्र हैं, जैसे आचारांग, सूत्रकृतांग, ठाणांग, समवायांग, विवाहप्रज्ञप्ति, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि, इन सूत्रों में त्यागी वर्ग के लिये हलन, चलन,
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