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श्री लोकाशाह मत-समर्थन
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२. सूर्याभ की पूजी हुई प्रतिमा तीर्थंकर प्रतिमा ही है इसमें कोई प्रमाण नहीं, कारण वहां बताई हुई प्रतिमाएं शाश्वत है, जिसकी आदि और अन्त नहीं, और तीर्थंकर शाश्वत नहीं हो सकते (यद्यपि तीर्थंकरत्व शाश्वत है किंतु अमुक तीर्थंकर शाश्वत है यह नहीं हो सकता) क्योंकि वे जन्मे हैं इसलिये उनकी आदि और अन्त है, देवलोक में बताई हुई ऋषभ, वर्द्धमान, चन्द्रानन, वारिसेन इन चार नाम वाली मूर्तिएं शाश्वत होने से तीर्थंकरों की नहीं हो सकती। यह तो देवताओं की परम्परा से चली आती हुई कुल, गोत्र, या ऐसे ही किसी देव विशेष की मूर्ति हो सकती है, क्योंकि जहां प्रतिमाओं का नाम है वहां पृथक् २ देवलोक में होते हुए भी सभी जगह उक्त चारों नाम वाली ही मूर्तिएं बताई गई है। यदि ये मूर्तिएं तीर्थंकरों की होती तो इन चार नामों के सिवाय अन्य नाम वाली और अशाश्वती भी होनी चाहिये थी। हां, यदि तीर्थंकर केवल चार ही होते तब तो वे मूर्तिएं तीर्थंकर की कभी मानी भी जा सकती, किंतु तीर्थंकर की संख्या हर एक काल-चक्र के दोनों विभागों में चौबीस से कम नहीं होती, अतएव देवलोक की मूर्तिएं तीर्थंकरों की होना सिद्ध नहीं हो सकती।
सूर्याभ के इस कृत्य को धार्मिक कृत्य कहने वालों को निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिये -
(अ) जिन प्रतिमा के साथ द्वार, तोरण, ध्वजा, पुष्करणी आदि को पूज कर सूर्याभ ने किस धर्म की आराधना की?
(आ) सूर्याभ के पूर्व भव में प्रदेशी राजा का जीव कितना क्रूर, हिंसक और नरक गति की ओर ले जाने वाले कर्म करने वाला था, यदि ये ही कृत्य चालू रहते तो अवश्य उसे नारकीय यातनाएं सहन करनी पड़ती। किन्तु जीवन के उत्तर विभाग में श्री केशीकुमार
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