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श्री लोंकाशाह मत - समर्थन
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जिन प्रतिमा की पूजा की थी वह जिन प्रतिमा, पाठकों के पूर्व परिचित उस तीसरी श्रेणी के जिन ( कामदेव ) की ही मूर्ति होनी चाहिये । निम्नोक्त हेतु इसको सिद्ध करते हैं -
( अ ) जिन प्रतिमा पूजा के समय द्रौपदी जैन धर्मिणी ( श्राविका ) नहीं थी और निदान पूर्ति के पूर्व वह श्राविका भी नहीं हो सकती है, न सम्यक्त्व ही पा सकती है, क्योंकि निदान प्रभाव ही ऐसा है। यदि द्रौपदी के निदान को मन्द रस का कहा जाय तो मन्द रस वाला निदान भी पूरा हुए बिना अपना प्रभाव नहीं हठा सकता और द्रौपदी की निदान पूर्ति होती है पाणिग्रहण के पश्चात् । अतएव पाणिग्रहण के पूर्व द्रौपदी में सम्यक्त्व का होना एकदम असम्भव मालूम होता है । खास सूत्र में भी स्वयंवर मण्डप में आते समय द्रौपदी पर निदान का असर बताने वाला मूल पाठ स्पष्ट रूप से मिलता है, देखिये
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'पुव्वकय णियाणेणं चोइज्जमाणी"
जब मूर्ति - पूजा के पश्चात् भी द्रौपदी के लिए सूत्रकार 'पूर्वकृत निदान से प्रेरित हुई' लिखते हैं तो पहले पूजा के समय उस पर से निदान के प्रभाव से हट कर सम्यक्त्व को कैसे प्राप्त हो गई ? विज्ञ पाठक इस पर जरा मनन करें कि जब सम्यक्त्व ही जिसमें नहीं है तो वह तीर्थंकर को आराध्य देव कैसे मान सकता है ? अतएव यह स्पष्ट हुआ कि द्रौपदी की प्रतिमा पूजा तीर्थंकर मूर्ति की पूजा नहीं हो सकती ।
निदान ग्रस्त के संस्कार ही ऐसे बन जाते हैं कि जिनके प्रभाव से जब तक इच्छाओं की पूर्ति नहीं हो जाय तब तक वह उसी विचार और उधेड़बुन में लगा रहता है। यहां द्रौपदी के हृदय में
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