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[36] ********************************************** इन स्वार्थ पोषक सिद्धान्तों का प्रबल विरोध किया और सत्य को सबके सामने रखा। उस सत्य को स्वीकार न करते हुए मिथ्यावादियों ने अपना प्रलाप तो चालू ही रखा और भोले भाले जीवों को लगे भरमाने, “अरे भाई! मूर्ति-पूजा शाश्वती है। सूत्रों में स्थान-स्थान पर मूर्ति पूजा का वर्णन आता है। मूर्ति-पूजा से ही धर्म रह सकता है। हजारों वर्ष पहले की मूर्तियां है" आदि आदि कपोल कल्पित बातें कर कर भोली जनता को भ्रम में डालने लगे। अहा! कितना अन्धेर? कहां महावीर के जमाने में ही मूर्तिपूजा का अभाव और कहां हजारों वर्ष? हाँ, यक्षादिकों की मूर्तियां एवं यक्षायतन शास्त्रों में वर्णित पाये जाते हैं और प्राचीन मूर्तियां भी मिलती है। परन्तु कोई यह कहने का साहस करे कि नहीं, जिन मन्दिर-तीर्थंकर मन्दिर और मूर्तियां भी थीं, तो यह उसकी केवल अनभिज्ञता है। वास्तव में मूर्ति-पूजा का श्री गणेश पहले पहल बौद्ध मतानुयायियों ने ही किया, वह भी बुद्ध निर्वाण के बाद ही, उसमें भी प्रारम्भ में तो बुद्ध के स्तूप, पात्र, धर्मचक्र आदि की पूजा की जाने लगी, तदनन्तर बुद्ध की मूर्तियां स्थापित होने लगी और इन्हीं बौद्धों की देखादेखी जैन धर्मानुयायियों ने भी कुशाण काल में जिन मंदिरों को बनाया और पूजा प्रतिष्ठा करने
लगे।
जैन धर्म निवृत्ति प्रधान एवं आध्यात्मिक भावों का ही द्योतक है, इस बात को भूलकर ऊपरी आडम्बर में ही धर्म-धर्म चिल्लाने वाले कितने शिथिल हो गये थे, धर्म के नाम पर क्या-क्या पाखंड
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