Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur View full book textPage 8
________________ 36 NO RIGGS! निवृति परम्परा प्रवृति परम्परा का विरोधि ही है। प्रवृत्ति व्यक्ति को उन सब मार्गों पर चलने को प्रेरित करती है, जिससे मनुष्य अन्यान्य कर्म बन्ध में बन्धता चला जाता है। किन्तु निवृति व्यक्ति को कर्म बंध से मुक्त करने वाले मार्ग पर चलने हेतु प्रेरित करती है निवृति परम्परा प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथजी के समय से प्रारंभ होकर अबाध गति से प्रवाहित है। यह परम्परा (निवृति परम्परा प्रकारान्तर से जैन परम्परा) व्यक्ति को सांसारिक एवं भौतिक सुख सुविधाओं को त्याग कर, पंच महाव्रतधारी, त्यागी, श्रमण बनने हेतु प्रेरित करती है। इस प्रेरणा से व्यक्ति भौतिक सुख सुविधाओं के प्रलोभनों से मुक्त होकर, 'स्व' एवं 'पर' कल्याण की कामना से अपना जीवन जिन धर्म को समर्पित कर देता है। वह "जैन श्रमण" बनता है। उसका जीवन त्यागमय तपः पूत दिनचर्या से पवित्र होता है। जैन श्रमण परम्परा को अग्रसर करना उसे अक्षुण्ण बनाये रखना हमारा धर्म है, कर्तव्य है। सात्विक सत्य शोधक जैन श्रमण परम्परा में जैन मुनि भगवन्त को मिलते सम्मान और आदर को देख उत्सवधर्मी व्यक्ति उत्साहित होकर, तपः पूत श्रमण धर्म को अपना तो लेता है, स्वीकार तो कर लेता है। परन्तु उसका सम्यनिर्वाह पूत पावन दृष्टि से, हंस दृष्टि से, कर पाना अत्यन्त कठिन होता है जब किन्ही कारणों से उसके पालन में विसंगतिया पैदा होती है तब पावन परंपरा अपमानित होती है। आदर सम्मान के स्थान पर विरक्ति सी उत्पन्न होती है। परन्तु यह स्थिति वदा-कदा ही पैदा होती है। ऐसी स्थिति में तर्क-वितर्क होते है, वाद विवाद होते है। अन्ततः फिर तत्वबोध होता है और मुनिधर्म पालन की परंपरा आगे और अग्रसर होती है। सौधर्म बृहत् तपागच्छीय त्रिस्तुतिक परम्परा में युग प्रवर्तक परम योगीन्द्राचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. हुए है जिन्होंने एक ऐसे समय में क्रांति का शंखनाद किया है जब श्रमण धर्म की मर्यादाओं से विमुख होकर बाह्य प्रवृतियों में लिप्त हो गये ऐसें तात्कालिन शिथिलाचार को दूर कर सुविशुध्द आचार मर्यादाओं के प्रति दिकूदर्शन करवाया क्रांति का शंखनाद ऐसे समय में हुआ, जब श्रमण धर्म की मर्यादाएं शिथिलाचारियों के तिलांजली दे दी थी भारत की श्रद्धालु जनता को अंधविश्वास में लेकर अपने तथाकथित मनोरथ पूर्ण कर रहे थे। ऐसे विषम समय में पूज्य दादा गुरुदेवने जावरा की पावन भूमि पर क्रियोध्दार करके शुद्ध श्रमण धर्म का पुनः प्रतिपादन किया। इसी अक्षुण्ण परंपरा में अनेक विरल विभूतियाँ हुई है। जिन्होंने दर्शन ज्ञान और चारित्र की विशुद्ध आराधना व तप पुतः साधना से भारतीय जनता को सम्यक् पथ का राही बनाया एवं जैन समाज को वीतराग प्रभु का आदर्श देकर विकसित किया। समय की गति के साथ ही इस यशस्वी परंपरा की श्रृंखला Jain Education International 阿 LEBOIS ON श्री जिनेश्वर प्रभु की सौम्य प्रतिमा के दर्शन से मन की सारी विफलता, समग्र चिंता विलीन हो जाती है वीतराग प्रभु ५ के दर्शन से अंतर में होता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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