Book Title: Lati Samhita
Author(s): Manikchandra Digambar Jain Granthmala Samiti
Publisher: Manikchandra Digambar Jain Granthmala Samiti
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पञ्चाध्यायीभी इसी समयके करीबकी-विक्रमकी १७ वीं शताब्दीके मध्यकालकी-लिखी हुई है । उसका प्रारंभ या तो लाटीसंहितासे कुछ पहले हो गया था और उसे बीचमें रोक लाटीसंहिता लिखी गई है और या लाटीसंहिताको लिखनेके बाद ही, सत्सहायको पाकर, कविके हृदयमें उसके रचनेका भाव उत्पन्न हुआ है-अर्थात् यह विचार पैदा हुआ कि उसे अब इसी टाइप अथवा शैलीका एक ऐसा ग्रन्थराज भी लिखना चाहिये जिसमें यथाशक्ति और यथावश्यक्ता जैनधर्मका प्रायः सारा सार खींचकर रख दिया जाय । उसीके परिणामस्वरूप पंचाध्यायीका प्रारम्भ हुआ जान पड़ता है और उसे 'ग्रन्थराज' यह उपनामभी ग्रन्थके आदिमें मंगलाचरणमें ही दे दिया गया है । परन्तु पंचाध्यायीका प्रारम्भ पहले माननेकी हालतमें यह मानना कुछ आपत्तिजनक जरूर मालूम होता है कि, उसमें उन सभी पद्योंकी रचना भी पहलेहीसे चुकी थी जो लाटीसंहितामें भी समानरूपसे पाये जाते हैं और इसलिये उन्हें पंचाध्यायी परसे उठाकर लाटीसंहितामें रक्खा गया है । क्योंकि इसके विरुद्ध पंचाध्यायीमें एक पद निम्नप्रकारसे उपलब्ध होता है:
ननु तद्द (सुद) शेनस्यैतल्लक्षणं स्यादशेषतः । किमथास्त्यपरं किंचिल्लक्षणं तद्वदाद्य नः ॥ ४७७ ॥ यह पय लाटीसंहितामें भी चतुर्थसर्गके शुरूमें कोष्टकोल्लेखित पाठ भेदके साथ पाया जाता है । इसमें 'तद्वदाय नः' इस वाक्यखण्डके द्वारा यह पूछा गया है तो उसे आज हमें बतलाइये' । इस प्रश्नमें 'आज हमें बतलाइये' (वद अद्य नः) इन शब्दोंका पंचाध्यायीके साथ कोई सम्बन्ध स्थिर नहीं होता-यही मालूम नहीं होता कि यहाँ 'नः' (हमें) शब्दका वाच्य कौनसा व्यक्ति विशेष है; क्योंकि पंचाध्यायी किसी व्यक्तिविशेषके प्रश्न अथवा प्रार्थना पर नहीं लिखी गई है । प्रत्युत इसके, लाटीसंहितामें उक्त शब्दोंका सम्बन्ध सुस्पष्ट है । लाटीसंहिता अग्रवालवंशावतंस मंगलगोत्री साहु दूदाके पुत्र संघाधिपति 'फामन' नामके एक धनिक विद्वानके लिये, उसके प्रश्न तथा प्रार्थना पर लिखी .
B ला. टी.