Book Title: Lati Samhita
Author(s): Manikchandra Digambar Jain Granthmala Samiti
Publisher: Manikchandra Digambar Jain Granthmala Samiti
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(२३) श्रेयोथं फामनीयैः प्रमुदित मनसा दानमानासनाद्यैः ।
स्वोपज्ञा राजमल्लेन विदितविदुषाम्नायिना हैमचन्द्रे ॥४७॥ इस पद्यसे ग्रन्थकतीके सम्बन्धमें सिर्फ इतनाही मालूम होता है कि वे हेमचन्द्रकी आम्नायके एक प्रसिद्ध विद्वान थे और उन्होंने फामनके दान-मान आसनादिकसे प्रसन्नचित्त होकर लाटीसंहिताकी रचना की है । यहाँ जिन हेमचन्द्रका उल्लेख है वे ही काष्ठासंघी भट्टारक हेमचन्द्र जान पड़ते हैं । जो माथुरगच्छ पुष्कर गणान्वयी भट्टारक कुमारसेनके पट्ट-शिष्य तथा पद्मनन्दि भट्टारकके पट्ट गुरु थे और जिनकी कविने संहिताके प्रथमसर्गमें बहुत प्रशंसा की है-लिखा है कि, वे भट्टारकोंके राजा थे, काष्ठासंघरूपी आकाशमें मिथ्यान्धकारको दूर करनेवाले सूर्य थे
और उनके नामकी स्मृतिमात्रसे दूसरे आचार्य निस्तेज हो जाते थे अथवा सूर्यके सन्मुख खद्योत और तारागण जैसी उनकी दशा होती थी और वे फीके पड़जाते थे । इन्हीं भ० हेमचन्द्रकी आम्नायमें 'ताल्हू , विद्वानको भी सूचित किया है । इस विषयमें कोई सन्देह नहीं रहता कि कविराजमल्ल एक काष्ठासंघी विद्वान् थे । आपने अपनेको हेमचन्द्रका शिष्य या प्रशिष्य न लिखकर आम्नायी लिखा है और फामनके दान-मान-आसनादिकसे प्रसन्न होकर लाटीसंहिताके लिखनेको सूचित किया है, इससे यह स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि आप मुनि नहीं थे । बहुत संभव है कि आप गृहस्थाचार्य हों या ब्रह्मचारी आदिके पद पर प्रतिष्ठित रहे हों। परन्तु कुछ भी हो, इसमें सन्देह नहीं कि आप एक बहुत बड़े विद्वान थे, सत्कवि थे, अच्छे अनुभवी थे और आपकी कृतियां सबोंके पढ़ने तथा संग्रह करनेके योग्य हैं । विद्वानोंको आपके ग्रन्थोंकी खोज करनी चाहिये । सम्भव है कि आपके लिखे हुए कुछ और भी ग्रन्थ मिल जायें । यहाँ पर मैं इतना, और भी प्रकट कर देना उचित उमझता हूं कि दो एक विद्वान् ‘रायमल्ल' नामसे भी हुए हैं, जिन्हें कहीं कहीं 'राजमल्ल' भी लिखा है । जैसे हुंबड़जातीय ब्रह्मचारी रायमल्ल, जिन्होंने वि० सं०