Book Title: Laghu Siddhant Kaumudi me aaye hue Varttiko ka Samikshatmaka Adhyayan
Author(s): Chandrita Pandey
Publisher: Ilahabad University
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होता है, उसका निषेध उस वार्तिक से होता है । यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि आचार्य वरदराज ने लघु सिद्धान्त को मुदी में 'यणः प्रतिषेधो वाच्यः ' यह वार्तिक का स्वरूप लिखा है। महाभाष्य में लिखित वार्तिक का स्वरूप अमर दिखाया जा चुका है। श्रीवरदराज का यह आशय है कि 'का क्यर्थ वास्यर्थ' इत्यादि प्रयोगों में 'सकार ककार' के लोप का प्रतिरोध करने वाले वार्तिक की
आवश्यकता नहीं है । यहाँ पर 'स्था निवत भाव' कर देने से संयोगादि लोप का वारण हो जाता है । अतः संयोगान्ततोप का निषेधक प्रथम वार्तिक ही करना चाहिए । संयोगा दि लोप प्रतिषेधक वार्तिक के आरम्भ पक्ष में यह बात कही जा सकती है कि 'का क्यर्थ वास्यर्थ' इत्यादि में 'स्था निवत् भाव' से इष्ट सिद्धि होने पर भी ऐसे स्थन पर 'स्था निवत् भाव' की प्रवृत्ति के लिए 'तस्य दोषः ' 'संयोगा दि लोप ल त्वणत्वेषु' इस वचन का जैसे आरम्भ है उसी प्रकार से सेयोगादि लोप निषेधक इस वार्तिक वचन का प्रारम्भ किया जा सकता है क्योंकि एक उपाय दूसरे उपाय को दूषित नहीं कर सकता है अर्थात् 'का क्यर्थ वास्यर्थ' यहाँ सकार ककार' के लोप का निधेट 'स्था निवत् भाव' से अथवा 'संयोगादि लोपे च' इस वार्तिक के द्वारा किया जा सकता है। ये सारी बातें इसी सूत्र के प्रदीप' और उद्योत' ग्रन्थों में
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1. का क्यर्थमिति । 'तस्य दोषः संयोगा दिलोपलक्ष्यणत्वेध्विति वचनात स्थानिवद
भावादापि परिहत् शक्यः' महाभाष्य प्रदीप 8/2/23.
2. 'तस्यदोष इति । एवञ्च तदनाश्रयणेद मितिभावः ।'
महाभाष्य उद्योत 8/2/23.