Book Title: Laghu Siddhant Kaumudi me aaye hue Varttiko ka Samikshatmaka Adhyayan
Author(s): Chandrita Pandey
Publisher: Ilahabad University
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एक पक्ष में इष्ट है । इस अर्थ को प्रामाणिक करने के लिए काशिकाकार ने इस
श्लोक वार्तिक को उपन्यस्त किया है ।
सम्बोधने तु शनस स्त्रि रूपं सान्तं तथा नान्तमथाप्यदन्तम् । माध्यन्दि निवष्टिगुणं त्विगन्ते नपुंसके व्याघ्र पदां वरिष्ठाः ॥
आचार्य माधव ने भी इस श्लोक वार्त्तिक के अंश 'सम्बोधने तु शनसत्त्रि रूपं' इत्यादि का उदाहरण दिया है । 'वष्टि ' यह रूप 'वश् कान्तौ ' धातु से बना है । उक्त श्लोक वार्त्तिक के अनुसार ही मनोरमा में भी एतच वार्तिक' इस शब्द से उल्लेख किया गया है । हरदत्त की यह व्याख्या कि "अनड. सौ इस सूत्र में 'सौडा' ऐसा न कह कर के 'अनड.' विधान कहीं-कहीं 'अनड.' श्रवण के लिए है । इससे उशनस शब्द की 'सम्बुद्धि 'मैं 'हे' एक पक्ष में 'अनइ . ' सिद्ध हो जाता है । इस हरदत्त की उक्ति का मनोरमाकार ने 'अनड. सौ ' इस सूत्र के व्याख्यान में दूषित कर दिया है । इस प्रकार दीक्षित के मत से यह वार्तिक वाचनिक है । जिसे लघु सिद्धान्त कौमुदीकार ने भी यथावत् स्वीकार किया है । इस वार्तिक का अर्थ है कि 'उशनस्' शब्द को 'सम्बुद्धि परे ' रहते विकल्प से 'अनड ' होता है तथा 'न लोप' भी विकल्प से होता है । 'दुशनस् पुरुदंसो अनेह सा च' इस सूत्र से 'तम्बुद्धि' परे रहते 'अनड. ' की प्राप्ति नहीं होती । अतः 'अनड' का विकल्प से विधान वार्तिक के द्वारा किया जाता है । इसी प्रकार 'न डि. सम्बुदयौ' इस सूत्र से प्रतिषेध होने से 'न लोप
1. अष्टाध्यायी 7/1/93.