Book Title: Laghu Siddhant Kaumudi me aaye hue Varttiko ka Samikshatmaka Adhyayan
Author(s): Chandrita Pandey
Publisher: Ilahabad University
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जाता है । प्रातिपदिक ग्रहण करने से 'सुप् आत्मनः क्यम्' सूत्र से 'सुपः ' का सम्बन्ध नहीं होता। अतः 'कृष्ण इव माचरति कृष्णति' इत्यादि प्रयोगों में 'कृष्ण' शब्द का 'अकार अपदान्त' रहता है इसी लिए 'शक्य अकार' के साथ 'अकोगुणे' .सूत्र से पद रूप होता है तथा 'राजा इव आचरति राजानति' प्रयोग में न लोप नहीं होता है । अन्यथा 'कृष्णति' यहाँ 'कृष्णाति' तथा 'राजानति' के स्थान पर 'राजाति' यह प्रयोग हो जाता । इस प्रकार भाष्यकार प्रदीपकार तथा तत्त्वबोधिनी कारादि आचायों ने इसका व्याख्यान किया।
आधादिभ्य उपसंख्यानम्
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'प्रतियोगे प चम्यास्ततिः 2 इस सूत्र के भाष्य में यह वार्तिक पढ़ा गया है । 'घादि से 'स्वार्थ' में 'तसि' प्रत्यय हो' यह इसका अर्थ है । यह 'तसि' प्रत्यय सर्व विभक्त्यन्त से होता है क्यों कि 'तस्यादित उदात्तमहत्त्वम्' यह निर्देश इसके सर्व विभक्तरूनत से होने में प्रमाण है । आधा दिगण के आकृतिगण होने के कारण 'आदाविति' अर्थात् 'आदि में 'इस अर्थ में 'आदितः ' बनेगा । इसी प्रकार मध्यतः, अन्ततः भी जानना चाहिए । स्वरेण स्वरतः अर्थात् 'स्वर से ' इस अर्ध में 'तप्सि' हुआ, 'वर्णेन ' वर्णतः इत्यादि स्थनों में वर्ण से इस इत्यादि में तृतीयान्त से 'तसि' हुआ है ।
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I. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तद्वित प्रकरणम् पृष्ठ 1017. 2. अष्टाध्यायी 5/4/44. 3. वही, 1/2/32.