Book Title: Laghu Siddhant Kaumudi me aaye hue Varttiko ka Samikshatmaka Adhyayan
Author(s): Chandrita Pandey
Publisher: Ilahabad University
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समास में 'प्र' शब्द ही 'पदैकदेशन्याय' से 'प्रमगत' रूप अर्थ में विद्यमान है।
और उस 'प्र' शब्द का 'आचार्य' पद के साथ समाप्त हो गया है । इस लिए समास में 'गतपद का अप्रयोग है । उक्त रीति से 'प्र' शब्द के द्वारा ही 'तदर का अभिधान हो गया है। इसी प्रकार 'अतिक्रान्तो मालाम् , अतिमाल:, अवकृष्टः, को फिलया, अवको फिलः, परिग्लानो, मध्ययनाय, पर्यध्ययन:, निष्क्रान्तः, कौशाम्ब्या:, निष्कौशाम्बी इत्यादिकों में भी उक्तीति से 'क्रान्ताधर्थ में कहना चाहिए । ये प्रादि वृत्तिविष्य में ही 'गताधर्थ' के बोधक हैं । शब्द की शक्ति का स्वभाव ही ऐसा है । अवृत्ति में बोधक नहीं है । अत: प्रगत:
आचार्यः' इत्यादि विग्रह वाक्य में 'गता दि' शब्दों का प्रयोग होती ही है । समाप्त में तो 'प्र' शब्द से ही 'गताधर्थ' का अभियान हो जाने से 'गतादि' का प्रयोग नहीं होगा।
गतिका रकोपथदानां कृद्धिः सह समास वचनप्राक् सुबत्तवत्ते
गतिकारकोपथदानां कृतिः सहसमाप्त वचनप्राक् सुबुत्तपत्ते: ' यह वस्तुतः वार्तिक नहीं है किन्तु उपपद 'मतिड. सूत्र के 'अतिग्रहण' से ज्ञापित परिभाषा है । यह ज्ञापनत्व' प्रक्रिया इसी सूत्र के महाभाष्य में विस्तृत वर्णित है । उसका तात्पर्य यह है कि 'उपपदमतिह.' इप्त सूत्र में सुबामात्तिते' इस सूत्र से सुप् पद तथा 'सहसुपा' सूत्र से तृतीयान्त सुपा पद यदि अनुवृत्त हो जाय तो
1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तत्पुरुष समास प्रकरणम् , पृष्ठ 854.