Book Title: Laghu Siddhant Kaumudi me aaye hue Varttiko ka Samikshatmaka Adhyayan
Author(s): Chandrita Pandey
Publisher: Ilahabad University
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इस सन्दर्भ में कुछ लोगों का अभिमत है कि 'इ,' प्रत्यय होने पर भी उसका 'बहवच इ : प्राच्य भरतेषु'' इसे लोप हो कर प्रत्यय लक्षण से 'स्वादिष्वसर्वनामत्थाने 'सूत्र से 'उडलोमन्' का 'पदत्वान्नलोप कर के 'जस्' प्रत्यय के साथ पूर्व 'सवर्ण दीर्घ' करके 'उडलोमा:' की सिद्धि हो जाएगी अतः 'अकार' प्रत्यय प्रकृत वार्तिक से नहीं करना चाहिए । उक्त विचार के निराकरण के सम्बन्ध में 'प्राच्यभर तगोत्र' से 'उडलोमन् ' शब्द भिन्न है अतः उक्त सूत्र से 'लुक' नहीं होगा तथाउडलोमैः, उडलोमेभ्यः इत्यादि स्थनों में न लोप का सुपु विधि की कर्तव्यता में 'अ सिद्धत्व' होने पर 'रेस् रत्वादि' कार्य 'राजभिः ' राजभ्यः' के सदश नहीं हो सकेंगे । 'यन्निमित्तक' न लोप है तन्निमित्तक सुप्' विधि में ही उसका 'असिद्धत्व भी है। वर्तमान 'उद्दलोभन ' शब्द में प्रत्ययलक्षाण से 'इ.' निमित्तुक न लोप है न कि 'मिसादि निमित्तक 'सुप्' विधि भी 'इ, निमित्तक नहीं है । अतः तत्तत्कार्य कर्त्तव्यता' में न लोप के 'असिद्ध त्व' का अभाव होने से 'ऐस् 'रत्वादि' साधन सुनकर भी 'न लुमताडस्य' से प्रत्यय लक्षण निषेध से 'इ,' प्रत्यय को आश्रय मानकर 'स्वादिषु' 'पद त्व' ही नहीं होगा । अतः 'उडलोमा: ' इस रूप की असिद्धि बनी रहेगी । यद्यपि 'अन्तर्वर्तिनी' विभक्ति के द्वारा सुप्तिडन्तपदम् सूत्र से 'उडलोमन् ' को 'पदत्व मानकर''म'
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1. अष्टाध्यायी, 2*4/66 2. वही, 1/4/17. 3. वही, 1/4/4.