Book Title: Laghu Siddhant Kaumudi me aaye hue Varttiko ka Samikshatmaka Adhyayan
Author(s): Chandrita Pandey
Publisher: Ilahabad University
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होता है । 'अनाम, नवति, नगरी' से भिन्न अवयव जो 'सकार' 'त्वर्ग ' उसके । 'टु त्व' का जो निषेध होता है यह अर्थ ठीक नहीं है। ऐसा अर्थ मानने पर 'अनाम' ऐसा कहने पर भी 'गणा' प्रयोग में 'टु त्व' का निधि होने लगेगा क्यों कि घण्णा, यह, समुदाय नाम से भिन्न है । अतः 'नाम' का 'नकार' नाम के अवयव होने पर भी नाम से भिन्न 'अण्णां' इस समुदाय का अवयव है । 'अनाम नवति नगरी' के अवयव जो 'सकार 'स्वर्ग' उस के 'टु त्व' का निषेध नहीं होता है। यह अर्थ 'प्रसज्य प्रतिषेध' न्याय का फल है । इस वार्तिक का उदाहरण 'षण्णा, वति, घण्णनगर्य है । भाष्यकार ने भी उन्हीं प्रयोगों को उदाहृत किया है । 'अण्णवति ह अधिका नवति' इस विग्रह के मध्यम पद लोपी समास प्रयोग सिद्ध हुआ है । यह तथ्य न्यास पदम जरी और लघु शब्देन्दु शेखर में स्थित है। प्रक्रियाप्रकाशकार' 'बावति' में 'द च नव तिच' यह समाहार दन्द्र कहते हैं । यद्यपि समाहार दन्द्र में इस प्रयोग में नपुंसक लिङ्ग की प्राप्ति हो सकती है किन्तु लिग लोकाश्रित होता है । अत: दोष नहीं है । मध्यम पद लोपी समास पक्ष में उन्होंने दोष भी दिखलाया है । यहाँ 'पड़' शब्द अन्तर वर्तिनी विभक्ति को लेकर 'न पदान्ताटोरनाम' इस सूत्र से 'नवति' 'नकार' को प्राप्त
1. 'E नवतिश्चेति समाहारे द्वन्दः । नपुंसकत्वाभावात्सु लोकात डाधिकान
वानवतिरिति शाकपार्थिवादित्वान्मध्यमपदलोपी समास इति प्राचोक्तं । तदसत् । 'संख्या' 16/2/351 इति दन्दनिबन्धा स्वरातिदेरित्याकररात् ।'
- प्रक्रिया कौमुद्री प्रकाश, हल्सन्धि प्रकरण ।