Book Title: Laghu Siddhant Kaumudi me aaye hue Varttiko ka Samikshatmaka Adhyayan
Author(s): Chandrita Pandey
Publisher: Ilahabad University
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इन दोनों पदों का परस्पर सामर्थ्य न रहने से 'युष्मदस्मदादेश' की प्राप्ति नहीं है। ये सभी पद विधियाँ 'पदस्य' इस सूत्र के अधिकार में हैं। ये सब 'सामथ्य भाव' में भी 'समान वाक्य में होने के कारण सिद्ध हो जाए इसके लिए वार्तिक का आरम्भ करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि इस वार्तिक के 'कन ' से 'सामर्थ्य' के अभाव में भी समान वाक्य ' में ये विधियाँ हो जाएं तथा 'सामर्थ्य' होने पर भी 'असमान वाक्य में न हो । यह सब न्यास और पदम जरी में स्पष्ट है । नागेश का कहना है कि 'समर्थ परिभाषा एकार्थी भाव रूप' सामर्थ्य मात्र को विषय कर प्रवृत्त होती है । अतः 'प्रकृत स्थन' पर समर्थ परिभाषा का विषय ही नहीं है । अतः इस परिभाषा से 'निधाता दि' के वारण की सम्भावना नहीं है । वस्तुतः पद संज्ञा प्रयोजक 'प्रत्ययोत्पत्ति' के प्रयोजक संज्ञीय 'उदेश्यतावच्छेद' का 'वाच्छिन्न त्वरूप' सम्पादक 'विधित्व' के 'निघात' विधि में तथा 'वाम् नौ' विधि में अभाव है । अतः ऐसे विष्य में 'तादृश परिष्कृत पदाविधित्व' न रहने से समर्थ-परिभाषा के प्राप्ति का अवसर नहीं है । यह वार्तिक भी वाचनिक है क्योंकि उपर्युक्त प्रयोगों में प्रकारान्तर से 'निचाता दि' का वारण सम्भव नहीं है । यहाँ 'वाक्य त्व' किस प्रकार का है यह आगे एकतिड. वाक्यम्। इस दार्तिक के व्याख्यान के अवसर पर कहा
जाएगा ।