________________
ये मोह की वस्तुएँ हैं ही ऐसी कि इनका स्वागत करने से इनकी रुचि और पराधीनता बढती जाए ।
तब ये राग- आसक्ति, लोभ-लालसा - लंपटता कब कम हों ? जिंदगी के अंत तक भी नहीं । शरणागति में मोह के द्वारा कुचले जाता रहना पडे । अनन्त भवों में जीव इसी तरह पिसता चला आया है ।
1
त्याग के अभ्यास से मोह के खिलाफ ताकत बढती है ।
जबकि यदि शरणागति छोड दें, अर्थात् थोडा मन को मार कर मोह का मुकाबला किया जाय, थोडा थोडा भी त्याग, तप, संयम का अभ्यास किया जाय तो इस अभ्यास के प्रभाव से आन्तरिक बल बढता जाय, आदत होती चले और आगे आगे और अधिक त्याग तपस्या हो सके । आज ऐसे कितने ही उदाहरण मिलेंगे कि जिनके जीवन में इस मोह का । मुकाबला तथा त्याग - तप आदि नहीं था, तब कुछ नहीं था परन्तु किसी सद्गुरु के समागम के फलस्वरुप मोह की सर्वेसर्वा शरणागति छोड कर वे मोह का सामना करने लग गये । पहले अल्प त्याग, फिर अधिक त्याग, पहले छोटी तपस्या फिर कुछ अधिक तपस्या आदि करने लगे, तो अकल्पित प्रगति हुई । असंभव था तो संभव बना, और अब आसानी से उत्तम धर्म साधना कर सकते हैं । अन्यथा मोह की सर्वतः शरणागति में तो मार ही खानी होती है ।
मानभट का दूसरे गाँव जाना
मानभट घायल होकर अपने मुकाम को लौटा। बाप ने देखा कि घाव बहुत लगे हैं, वे यहाँ जंगल में ठीक नहीं होंगे। किसी गाँव जाकर इलाज कराना होगा । अतः सब वहाँ से नजदीक के गाँव रवाना हुए। वहाँ मानभट को वैद्य से मरहमपट्टी करवाई । अच्छा होते देर लगी परन्तु गाँववालो से ऐसे हिल गये कि अब निश्चित होकर भीलों का डर रखे बिना वहीं रह गये, और वहीं से आजीविका का साधन पाने लगे ।
-
धर्म-साधना के तीन साधन :
जैसे जंगल में मरहमपट्टी नहीं हो सकती, वैसे इस संसार रुपी अटवी में, आत्मा पर पडे घावों का इलाज नहीं हो सकता । इसके लिए धर्म रुपी औषधालय जाना होता है, साधु-रुपी वैद्य खोजने पडते है, साधु सेवा करनी पडती है । अतः हरिभद्रसूरिजी महाराज ने 'शास्त्र वार्ता - समुच्चय' नामक शास्त्र में लिखा है :
'साधु सेवा सदा भक्त्या, मैत्री सत्त्वेषु भावतः । आत्मीयग्रहमोक्षश्च धर्महेतुप्रसाधनम् ॥'
धर्म क्या है ? आन्तरिक अहिंसा सत्य आदि तथा क्षमा, नम्रता आदि की परिणति । उसके हेतु अर्थात् कारणभूत साधनाएँ अच्छी तरह सिद्ध करनी हों तो ३ साधन जरुरी हैं
:
Jain Education International
२८
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org