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मनुष्य प्राणों की रक्षा सगी पत्नी या पुत्र की कीमत पर भी करता है। मकान में आग लगी हो, पत्नी और पुत्र के जल मरने का डर हो क्योंकि वे चौथी मंजिल पर सोये हुए हों और खुद पहली मंजिल पर सोया हो, और बीचकी सीढियों में तथा मंजिलों में आग फैल गयी हो, तो स्वयं क्या करेगा! चौथी मंजिल पर उठाने जाएगा? नहीं बाहर निकलकर रास्ते पर गदेला का ढेर लगाकर जोर से चिल्लाएगा, 'अरे जागो ! कूद पडो ।' क्यों लेने नहीं जाता? अपने प्राण ज्यादा प्यारे हैं। उन्हें खोकर बेटे-बेटी या पत्नी की रक्षा करने नहीं जाना है। लेकिन यहाँ प्राण खो कर भी यह बेकद्री और अपमान न देखना पड़े सो करना है।
मूल्यवान क्या है ? प्राण मूल्यवान हैं या मान और कद्र का अहंत्व ?
कहिये कि, मान के गुलामों के लिए मान का मूल्य अधिक है, जबकि जीवन सुकृतों से भरा-पूरा बने इसकी महत्ता को ज्यादा आँकनेवालों को मान से बढ कर प्राण अधिक मूल्यवान् लगते हैं, इसलिए तो देखिये -
श्रीपालकुमार के साथ युद्ध में उनके चाचा अजितसेन की हार हुई तो मान भंग हुआ क्योंकि चाचा ने प्रपंच रचकर बालक श्रीपालकुमार का राज्य हथिया लिया था, परन्तु जब श्रीपाल. वयस्क हो कर आये हैं और दूत के द्वारा आदरपूर्ण शब्दों में चाचा को संदेशा भिजवाया है कि -
'चाचाजी ! आपने अब तक राज्य सम्हालने का कष्ट उठाया सो आपका मैं उपकार मानता हूँ। अब मैं बड़ा हो गया हूँ - अतः आपको कष्ट मुक्त करता हूँ। राज्य मुझे सोंप दीजिये । आप शान्ति से बैठिये ।'
चाचा का अभिमान
लेकिन घमंड में चढ़े हुए चाचा भला यह माने ? उन्होंने तो श्रीपाल को तुच्छ मान कर, निर्बल मान कर दूत को दुत्कार दिया । और युद्ध हो तो श्रीपाल को चुटकी में हराकर दूर निकाल देने की सोची। सोचिये, दिमाग में कितनी राई भरी होगी अब तुच्छ माने हुए श्रीपाल से ऐसे घमंडी को हार खानी पडी; तब उस चाचा को मानहानि कितनी अखरती होगी? उसके मन को ऐसा लगे कि -
'अररर ! इतने सारे राजाओं के सामने मैं अपमानित हुआ। तो अब मैं क्या मुँह दिखाऊँ ? इस अपमान में अब कैसे जीना ? इससे तो बेहतर है कि आत्महत्या ही कर लूँ। मानहानि से तो प्राणहानि अच्छी, जिससे मरने के पश्चात् मेरे प्रति लोगों की तिरस्कारपूर्ण द्रष्टि का सामना तो न करना पड़े।
चाचा की विवेकपूर्ण बुद्धि
लेकिन चाचा अजितसेन ने विचार की दिशा बदल दी; क्योंकि अब वे समझते हैं . कि 'मान-रक्षा के मूल्य से मानव-जीवन बहुत अधिक मूल्यवान है, अतः मान की रक्षा के लिए जीवन का नाश नहीं होना चाहिए। क्योंकि अनेकानेक सत्कृत्य महात्याग, महान तप,
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