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में जरा सी माया की, तो उस माया ने स्त्रीवेद का अशुभ कर्म पैदा कर स्त्री का अवतार दिलाया !
आचार्य महाराज कहते हैं :
माया सज्जनों के प्रति भी ठगबाजी के विचार करवाती है । मायावी को कुछ भी अच्छा देखना, आचरण करना, बोलना, चालना आता ही नहीं। अंधा आदमी अच्छा नहीं देख सकता, लंगडा ठीक से नहीं चल सकता, बहरा नहीं सुन सकता, चुगलखोर अच्छा नहीं बोल सकता, भूत से आविष्ट अथवा उन्मत अच्छा बर्ताव कर नहीं सकता। बस ! इस तरह मायावी अर्थात् अंधा, लंगडा, बहरा, चुगलखोर, भूताविष्ट ! ऐसी स्थिति मायावी की होती है। ऐसे वक्र आचरण से वह मित्र स्नेही-सम्बन्धियों आदि का आदर खोता है। माया के ये अनर्थ डायरी में लिख रखिये, और प्रतिदिन एक बार पढ़ कर ध्यान में लेते जाईये।
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| मायादित्य का द्रष्टांत :आचार्य महाराज कहते हैं, कि माया कैसी खतरनाक है वह देखना हो तो देखिये आपकी बायीं ओर तथा मेरे पीछे बैठे हुए इस मायादित्य को । देखिये, इस की देह कितनी संकुचित हो गयी है ? इसमें कैसी कायरता आयी हुई दिखाई देती है। इसकी आँखें कितनी छोटी हो गयी हैं । बैचारा माया का मंदिर बन बैठा था ! माया का कुलगृह हो गया था। माया पिशाची से ग्रस्त होकर इसने बहुत किया, किन्तु अन्त में हारकर अब आया है यहाँ।'
आचार्य महाराज ने क्या कहा? मायादित्य संकुचित, कायर, छोटी आँखों वाला हो गया है, क्यों भला ?
(१) माया से मन संकुचित-छोटा बनता है। (२) माया से मन शक्की बन कर कायर बनता है। (३) माया से स्वभाव क्षुद्र-तुच्छ-अकल्याणदर्शी बनता है।
अकल्याणदर्शी अर्थात् कुछ भी अच्छा देख न सके। श्रेष्ठ से श्रेष्ठ गुरु मिले हों, भले स्नेह सम्बन्धी मिले हों, फिर भी उनसे माया करने के कारण उनके सद्गुण, उत्तम सुकृत या उत्तम परोपकार की प्राप्ति उसे नहीं हो सकती । उसको तो एक ही बात !'चालाकी से अपना स्वार्थ साध लूँ। अगले को बनाकर अपनी अच्छाई दिखा दूं माया के कारण मन संकुचित बनता हैं क्योंकि ठगने की, वृत्ति रही हुई है; स्वार्थ के लिए छिपी चाल चलने की वृत्ति है; और इसमें मन उदार-विशाल नहीं बन सकता। इसलिए दूसरे के पास से अच्छे की प्राप्ति कैसे कर सकता है? जिसका हृदय विशाल हो वही दूसरे के पास से कुछ अच्छा पा सकता है।
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