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गयी है ! उस तरफ सुवर्णदेवी का बालक जयवर्मा राजा के पुत्र शबरसिंह को मिला, जिसने उसे पुत्र के रुप में अपनाकर व्याघ्रदत्त नाम रखा । युवावस्था में प्रवेश करने पर विलासी स्वभाव के कारण उसके मित्र राजपुत्र उसे 'मोहदत्त' नाम से पुकारते हैं । वह मोहदत्त भी मदनोत्सव में उद्यान में आ पहुंचा है।
घूमते-फिरते मोहदत्त वनदत्ता के समीप पहुंचा। दोनों सगे भाई-बहन हैं, परन्तु एक-दूसरे को पहचानते नहीं ! जवानी तो दीवानी है। देखिये, मोह के कारण कैसा अनर्थ होता है ! वनदत्ता पर द्रष्टि पड़ते ही मोहदत्त कामातुर बन गया। वनदत्ता भी उसे सराग दृष्टि से देखने लगी, जिससे वह पुतले की तरह निश्चल बन गया !
(वासना-निग्रह के लिये क्या किया जाय ?
युवावस्था में प्रवेश करने पर बिना सिखाये ही वासना आ जाती है। फिर उसकी तृप्ति के लिये क्या-क्या करना, यह सिखाना नहीं पड़ता । इसमें तो जीव अनन्त काल से एक्स्पर्ट है, निष्णात है। इसीलिये समझना चाहिये कि यदि इस वासना का पोषण अनन्त काल तक हुआ, और यहाँ सहज भाव से जगकर जीव को विह्वल कर देती है, तो इसके निग्रह के लिये, इसे दबाने के लिये कितना भगीरथ सत्त्व प्रकट करना पड़ता है ? कितना विवेक जागृत रखना पड़ता है ? असत् निमित्तों से दूर रहने व सत् निमित्तों का सेवन करने का कितना पुरुषार्थ करना पड़ता है ! तब, इस संयम का उद्यम न किया जाय और उल्टे वासना का पोषण करने के विचार, वाणी व वर्तन करते चले जायें, तो वासना थोड़े ही शान्त होनेवाली है ? जन्मो-जन्म से इसी तरह वासना का पोषण होता रहा है, वही वासना आज भी इसी तरह मजबूत बनकर जीव के पीछे पड़ी है।
बासना के पीछे जीव का अमूल्य पुण्य-धन, व अमूल्य वाणी-विचार‘वर्तन की शक्तियाँ बर्बाद हो जाती हैं।
जीवन भर इसी तरह करते हुए अन्त में हिसाब निकाला जाय, तो हाथ में क्या दिखता है ? 'सांप खाता है, परन्तु उसके मुंह में कुछ नहीं आता।' जिस आदमी को सांप ने खाया हो, तो उसे सांप ने खाया, ऐसा कहा जाता है, परन्तु सांप के मुंह में कुछ नहीं आता । इसी प्रकार जीवन भर वासना के गुलाम बनकर सुख माना, परन्तु जीव को यहां से जाने पर हाथ में कुछ सुख मिलता है? कोई पुण्य मिलता है ? तो क्या नहीं लगता कि
दुनिया के पदार्थों को स्वयं ही देख-देखकर या स्वयं ही याद कर-करके वासना स्मी सोती हुई नागिन को जगाने जैसा नहीं ।
इसी प्रकार सहज में ही मिले हुए पदार्थों से जग पड़ी वासना को ऐसी द्रष्टि व विचारधारा का पोषण देने जैसा नहीं ।
क्या ऐसा आपको नहीं लगता? कितना ऊंचा व देवों को भी स्पृहणीय मानव भव क्या ऐसे ही व्यर्थ गंवा देंगे ? सारी होशियारी व बल वासना का पोषण करने में ही खर्च
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