Book Title: Kuvalayamala Part 2
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 212
________________ (४) गृहवास के कारण ही जिस धर्म के प्रताप से सब कुछ मिला है, उस धर्म के लिये सब कुछ तो क्या आधा भी धर्म के लिये खर्च करने का मन नहीं होता। (५) ज्यादा वक्त भी धर्म के लिये नहीं, कर्म के लिये ही व्यतीत होता है। (६) अरे! काया से शायद कर्म में जुड़ना पडे, परन्तु विचार से, मन से तो धर्म में चित्त रखा जा सकता है न ? किन्तु नहीं, गृहवास ऐसे व्यामोहित कर देता है कि काया नहीं,-तो चित्त उसीमें भटका करता है। वह भी यहाँ तक कि धर्मसाधना में बैठने पर भी संसार के ही विचार ! काया तो नाम के लिये धर्मसाधना में रहती है, परन्तु चित्त तो रहता है संसार के विचारो में ! यह सब गृहवास के कारण ही होता है न? (७) गृहवास चीज ही ऐसी है कि यह विश्वासघात, स्वार्थरसिकता,जरूरत पड़ने पर झूठ, अनीति, रसलंपटता, रूपलंपटता, स्पर्शलंपटता आदि कई पाप करवाता है। (८) गृहवास के कारण संसार का पक्ष लिया जाता है, धर्म का नहीं ! सांसारिक स्वजनों, सांसारिक सुख-सुविधाओं का पक्ष लेने का मन रहा करता है, परन्तु प्रभु का, धर्मबंधु का, धर्म के अंगों का पक्ष लेने का मन नहीं होता । संसार बसाते ही जीव मानों उसका खरीदा हुआ गुलाम बन जाता है। यह कैसी दुर्दशा ! इतना ऊँचा मानव भव पाकर तो अब धर्म का ही पक्ष लेना चाहिये ; परन्तु यह गृहवास संसार का पक्षकार ही बना देता है। (९) गृहवास के कारण ही मुख्य आत्मस्वभाव... ज्ञान की वृद्धि के लिये प्रयास नहीं होता। ज्ञान-चैतन्य तो अपनी आत्मा का मूलभूत मुख्य स्वभाव है, परन्तु क्या रोज उसकी वृद्धिके लिये प्रयत्न किया जाता है ? होशियारी तो बहुत है, होशियारी का दावा भी करते है, परन्तु इसका उपयोग करके अधिकाधिक ज्ञानप्राप्ति करूँ,' ऐसी इच्छा कहाँ जगती है ? (१०) स्वयं में तो ज्ञानवृद्धि नहीं, परन्तु संतानो में भी नहीं ! आज तो दुनिया का पापमय ज्ञान दिलाने के लिये संतानों के पीछे कई सालों तक कितनी मेहनत करते हैं ! इसमें कितने पैसे खर्च करते हैं ? उन्हें पढने की अनुकूलता देने के लीए उनके काम भी स्वयं करके कितना योगदान देते हैं। (११) आज बच्चे विनय-बहुमान क्यों भूल गये हैं ? माता-पिताओं को बच्चों से कुछ सेवा-कार्य तो करवाने ही चाहिये। उनसे काम न करवाकर माता-पिता स्वयं ही वे कार्य कर लेते हैं। बच्चे अच्छे पढ़-लिखकर अच्छी तरह से अपना घर-संसार चला सकें, इसलिये माता-पिता उन्हें पूरी अनुकूलता देकर उन्हें सेठ बना देते हैं। आज की शिक्षण-प्रणाली में माता-पिता की सेवा, विनय तथा बहुमान का कोई स्थान नहीं, तो फिर शिक्षक अर्थात् विद्यागुरु की सेवा, विनय व बहुमान का तो स्थान ही कहाँ से हो? बालमंदिर से लेकर ऊपर कॉलेज तक बालक को कहीं इसके संस्कार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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