Book Title: Kuvalayamala Part 2
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 213
________________ दिये जाते हैं ? नहीं । परिणामस्वरूप आज के अध्यापक विद्यार्थियों से कितने डरकर रहते हैं। ये विद्यार्थी उन्हें परेशान करने में कुछ बाकी नहीं रखते। ये बच्चे घर में माँ-बाप के लिये क्या करेंगे? माता-पिता के साथ कैसा उद्धत वर्तन करते हैं ? आगे चलकर वे ही लडके समाज में अविनय, उद्दण्डता भरा वर्तन नहीं करेंगे? ज्ञान के मूल में गुरुजन-पूजा व परार्थकरण :__ • गुरुजन-पूजा व परोपकार के बुनियादी ज्ञान के बिना का शिक्षण पापज्ञान ही बनता है न ? रोज 'जय वीयराय' सूत्र में प्रभु के पास आप यह मांगते हैं कि मुझे 'गुरुजन की पूजा व परार्थकंरण' मिले। क्यों? इसका कारण यही है कि ये लौकिक सौन्दर्य हैं। इनके बिना लोकोत्तर सौन्दर्य रूप जैन धर्म नहीं मिलता, उसकी योग्यता नहीं आती। साधु का योग भी कब सार्थक बनता है ? ये दोनों बातें हों तो! तो आप ही बताईये, यह गुरुजनपूजा व पर का भला करने का शिक्षण कितना आवश्यक है ? यह तो बुनियाद है, नींव है। इसके बिना का शिक्षण पापज्ञान है। फिर भी आपको अपनी संतान में पापज्ञान बढाने में दिलचस्पी है, परन्तु यह बुनियादी धर्म का ज्ञान दिलाने में दिलचस्पी नहीं । इसीलियें तो बच्चो को पाठशाला नहीं भेजते । अरे! स्वयं को ही सम्यग ज्ञान की प्राप्ति की कोई दिलचस्पी न हो, कोई प्रयत्न न हो, वहाँ आश्रितों के लिये भी इसका विचार कहाँ से आयेगा? मोहदत्त को पाप धोने कि लिये मुनि ने ऐसे अनेक कारणों से गृहवास छोडने की प्रेरणा दी। महात्मा कहते हैं कि 'यदि तू अपनी आत्मा को पापों से मुक्त करना चाहता है, तो गृहवास व स्वजनों को छोडकर वैराग्य को अपनाकर चारित्र की आराधना में लग जा।' चारित्र लेकर कैसा बनना चाहिये, यह बताते हुए महात्मा मोहदत्त से कहते हैं - 'जो चंदणेण बाहुं आलिंपइ वासिणा य तच्छेइ । संथुणइ जो य निंदइ, तस्स तुम होसु समभावो ॥' अर्थात् कोई चन्दन से बाहु पर विलेपन करे,-या कोई बांस से हाथ को छीले, कोई स्तुति करे या कोई निन्दा करे, सबके प्रति तू समभाव रखना । (समभाव के बिना चारित्र निरर्थक : चारित्र में समभाव रखने की नितान्त आवश्यकता है। समभाव न होने से कदमकदम पर होते हैं- राग व द्वेष, हर्ष व उद्वेग । इनसे चारित्र को क्षति पहुँचती है। समभाव के बिना इष्ट विषयों के राग व अनिष्ट विषयों के द्वेष से पांचों महाव्रतों में कहीं न कहीं, कोई न कोई दूषण लगता है। कहीं तो आरंभ-समारंभ करने-कराने-अनुमोदन करने का होता है, या कहीं अल्प मृषाभाषण-चिन्तन आ जाता है, अथवा स्वामी अदत्त, जीव अदत्त, तीर्थकर अदत्त या गुरु-अदत्त का सेवन हो जाता है अथवा शब्द-रूप-रस आदि के आकर्षण से चौथे महाव्रत में अतिक्रम होता है या इच्छा-मूर्छा-गृद्धि से पांचवें महाव्रत में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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