Book Title: Kuvalayamala Part 2
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 214
________________ दोष लग जाता है । समभाव के बिना छट्टा गुणस्थानक नहीं टिकता : समभाव न रखे, तो राग-द्वेष आदि थोडे भी बढ जाने से तीसरे प्रत्याख्यानावरण कषाय की कोटि में चले जाने से चारित्र का सर्वविरति भाव उठ जाता है, चारित्र का छठा गुणस्थानक चला जाता है, प्रसन्नचंद्र राजर्षि समभाव खो बैठे, तो कषाय बढ़ते-बढ़ते पहले मिथ्यात्व गुणस्थानक पर पहुँचकर सातवीं नरक तक के पापों का उपार्जन करनेवाले बने । आगे वे कहते हैं : : 'समभाव में आगे बढते - बढते ऐसी स्थिति पैदा कर कि कोई चन्दन से विलेपन करे, तो तुझे राग न हो, हर्ष न हो और कोई बांस से तेरे शरीर को छीलने लगे, तो उसके प्रति तुझे द्वेष न हो, खेद न हो। दोनों पर समभाव रहे, ऐसी दशा में पहुँच जा।' तथा... कुणसु दयं जीवाणं, होसु य मा निद्दओ सहावेणं । मा होसु सढो, मेति (मुत्ति) चिंतेसु य ताव अणुदियहं ॥ कुणसु तवं जेण तुमं कम्मं तावेसि भवसय-निबद्धं हो सु य संजम - जमिओ, जेण ण कज्जेसि ते पाप ॥ अर्थात् " (१) जीवों पर दया कर व स्वभाव से ही किसी के प्रति निर्दय मत बनना । (२) शठ मत बनना। (३) हमेशा जीवों पर मैत्रीभाव रख । (४) इन्द्रियों के विषयों के प्रति निःस्पृह भाव रख । (५) तू तप कर, जिससे सैकडों भवों के बांधे हुए कर्म जल जायें। (६) संयम से नियंत्रित बना रह, जिससे फिर से नये पापों का उपार्जन न हो । पाप के गहरे गड्ढे में पडे हुए जीव के उद्धार के लिये, उत्थान के लिये महात्मा ने ये ६ सुन्दर उपाय बताये । 11 राग - ममता कैसे छूटे ? मोहदत्त को मुनिराज कह रहे हैं कि 'तुझे घोर पाप धोने हों, तो राग - ममता - स्पृहा छोड़ दे ।' चईऊण घरावासं पुत्त - कलत्ताइं मित्त-बंधुयणं वेरग्गग्ग - लग्गो, पवज्जं कुणसु आउत्तो गृहवास - पुत्र - स्त्री - मित्र- स्वजनों का त्याग करके वैराग्य मार्ग पर चल ष सावधान बनकर प्रव्रज्या का पालन कर । 'प्रव्रज्या' का अर्थ है... प्रकर्ष से व्रजन, गमन । अर्थात् गृहवास से उत्कृष्टता से निकल जाना । अर्थात् (१) इस तरह से निकल जाना कि फिर से इस जीवन में वापिस उस तरफ कदम ही नहीं रखना । (२) इस तरह से निकल जाना कि फिर उसका विचार तक मन में नहीं लाना, मानों जीवन पूर्ण करके दूसरे भव में चले गये, तो पूर्व जीवन का स्मरण ही न हो, उसके साथ कोई संबन्ध ही न हो। फिर राग - ममता-स्पृहा किस प्रकार टिक २०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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