Book Title: Kuvalayamala Part 2
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 207
________________ उसके साथ केल-गृह में जाती है। कैसी बेहूदी बात ! भाई-बहन कामराग में फँसते हैं व माँ स्वयं खुश होती है। . वनदत्ता कौन है, यह मोहदत्त नहीं जानता । अज्ञानता के कारण मोहमूढ बनकर उसके साथ क्रीडा करने को तत्पर होता है, इतने में तो उसके कान में मधुर स्वर सुनाई देता 'मारेउण पियरं, पुरओ जणणीए तं सि रे मूढ ! इच्छसि सहो यरिं भइणियं रमिउण एत्ताहे ?' अर्थात् हे मूढ ! पिता को मारकर, माँ के आगे, अपने साथ जन्मी हुई बहन के साथ तू काम-क्रीडा करना चाहता है ? ___ यह सुनकर मोहदत्त चौंक उठा। आजु-बाजु नजर करता है कि कौन ऐसे असंबध्द वचन बोल रहा है ? परन्तु कोई नजर नहीं आता, अतः वह फिर से अनुचित प्रवृत्ति करने के लिये तत्पर हुआ। इतने में फिर से मधुर आवाज सुनायी दी 'मा मा कुणसु अकज्जं, जणणी पुरओ पिउं पि मारेउं । रमसि सहो यरि-भइणि मूढ ! महामोहयरेण ? ॥' 'माता के सामने ही पिता को मारकर अकार्य मत कर, मत कर । हे महा मोह रुपी मगरमच्छ से मूढ बने हुए मानव ! साथ में जन्मी हुई बहन को भोगना चाहता है?' फिर से यह सुनकर मोहदत्त चौंक उठा, 'अरे ! कौन ऐसी बात कर रहा है ?' मन को समझाता है कि 'संभव है कि कोई दूसरे किसीको संबोधित करके ये वचन बोल रहा होगा, मुझे नहीं।' काम के आवेश में कैसी दशा ! मोहदत्त तीसरी बार भी अपकृत्य करने के लिये तैयार होता है कि फिर से आवाज सुनायी देती है, - 'निग्घिणि ! तए एकं कयं अकज्जं ति मारिओ जणओ । एण्हि दुइयमक ज्जं सहोयरिं इच्छसि घेत्तुं ( भोत्तुं ) ॥' अर्थात् 'हे निर्लज्ज ! तूने एक अकार्य तो यह किया कि पिता को मारा । अब क्या बहन के साथ कामभोग करने का दूसरा अकार्य करना चाहता है ?' तीसरी बार यह आवाज सुनने पर विचार में पड़ा कि यहाँ मारने का काम तो किसीने किया नहीं है और दुराचार की तैयारी भी किसीकी दिख नहीं रही। दोनों बातें मुझमें ही दिख रही हैं। इससे मोहदत्त को शंका पड गयी कि 'यह आवाज मुझे संबोधित करते हुए ही आ रही है । परन्तु यह बाप व बहन की असंगत बात क्या है ? कुछ समझ में नहीं आ रहा ! जरा, देखें तो सही, हकीकत क्या है ?' ऐसी जिज्ञासा व थोडे रोष के साथ हाथ में तलवार लेकर वह केल-गृह से बाहर निकलकर चारों ओर ढूँढने लगा कि बोलनेवाला कौन है ? कहाँ है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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