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स्वार्थ के कारण सज्जनता मर्यादित :
शायद आप सोचेंगे कि क्या वह फिर से ऐसे दुष्ट मित्र के योग में आना चाहता है ? क्या सांप कभी जहरीलेपन का स्वभाव छोड़कर अमृतवाले बन सकते हैं ? यह मायावी मित्र कभी मायावी-द्रोही मिटकर सज्जन बननेवाला है ? फिर से ऐसे ही मित्र का संग करके पछताया जाय?' गहराई से विचार करने पर आपको लगेगा कि ऐसा लगने के पीछे कारण है - स्वार्थ का विचार व मर्यादित सज्जनता ! 'मर्यादित सज्जनता' इसलिए कि 'यदि सामनेवाला सज्जन हो, तो उस पर तो दया करना, उसके प्रति तो हमदर्दी रखना, परन्तु जिसने हमें नुकसान पहुंचाया हो, उसके प्रति दया रखना तो व्यर्थ है, उसके प्रति सज्जनता रखने का कोई मतलब नहीं । इसका नाम है - 'मर्यादित सज्जनता' । 'अपना नुकसान न हो, यह पहले देखना, इसका नाम है - 'स्वार्थ' । इसके कारण 'दुष्ट जन मरने पड़ा हो, तो भी उसकी दया के बारे में न सोचना' । 'सज्जन का सब करने को तत्पर, परन्तु दुर्जन का कौन करे?' यह स्वार्थ के साथ मर्यादित सज्जनता है। इससे बुरे इन्सान की दया का विचार दब जाता है। स्वार्थ व मर्यादित सज्जनता अवसरोचित दया को भूलाती है।
स्थाणु का दिल ऐसा नहीं । उसमें स्वार्थ बहुत कम है और सज्जनता अमर्यादित है। आगे भी हम देखेंगे कि मायादित्य के प्रति वह कितनी सज्जनता दिखाता है। पहले तो वह बांस के झूरमूट में ढूंढता फिरता है, वहीं उसने एक झुरमुट में मायादित्य को देखा । वह कैसी अवस्था में था? गठरी की तरह हाथ-पांव व शरीर बांधा हुआ व औंधे माथे लटक रहा था।
स्थाणु द्वारा मायादित्य की सेवा :
मायादित्य की हालत देखते ही स्थाणु रो पड़ा। आंखों में अश्रु-धार के साथ कहने लगा – 'हाय मित्र ! तेरी यह दशा ?' उसके बन्धन छोड़कर बाहर निकाला। उसका शरीर जकड़ा हुआ होने से शरीर दबाकर उसे स्वस्थ किया। बाद में सब बात याद करके कहा - 'दोस्त ! जो होना था, सो हो गया। चिन्ता मत कर । मेरे पास मेरे पांच रत्न तो वापिस आये हैं। इनमें से ढाई रत्न तेरे व ढाई मेरे।' इस प्रकार आश्वासन देकर, हाथ पकड़कर धीरे-धीरे चलाया और नजदीक के गांव में पहुंचकर घाव पर मरहमपट्टी आदि करायी।
दिल अच्छा हो, तो मर्यादा बंधने में दुर्दशा है :
बाह्य स्वार्थ का विचार मुख्य हो, उसमें कोई हद नहीं कि 'वह कितना ज्यादा से ज्यादा स्वार्थ साधेगा' । दिल की अच्छाई में मर्यादा बांधना, दिल की दया-उदारता रखने में हद निश्चित करना! यह है, हमारी दुर्दशा ।
. मानव जीवन में दिल की मुख्यता है, बाह्य स्वार्थ सधने की नहीं । मानसशास्त्री भी । कहते हैं कि 'A human being is not a body or a belly, but a brain'
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