Book Title: Kuvalayamala Part 2
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 182
________________ भोजन करने का सुख नहीं मिलेगा।' तोशल ने तलवार लेकर म्यान में लगा दी व चला कन्या की सफेद हवेली की ओर ! छलांग लगाकर झरोखे पर चढ़ा । खिड़की में से अन्दर प्रवेश किया और देखा कि कन्या अकेली है, उसके पास कोई नहीं है और वह गुमसुमसी चिंता करते हुए बैठी है। यह देखकर तोशल को लगा कि इसे भी मेरी तरह चैन नहीं पड़ रहा । यह भी मेरा ही रटन करती हो, ऐसा लगता है। अब कोई चिन्ता की बात नहीं । यहाँ तो कोई है नहीं ! ऐसा सोचकर उसने तलवार की म्यान कन्या की पीठ के पीछे से उसके सिर के आगे रखी । कन्या ने इसीका संकेत किया था, इसीलिये यह देखते ही वह तुरन्त समझ गयी कि प्रेमी कुमार आया लगता है। अत्यन्त हर्ष में उसके रोमांच खड़े हो गये। प्रभु-दर्शन से रोमांच कब ? कहते हैं कि अरिहंत के दर्शन से रोमांच खड़े होते हैं। परन्तु कब? दिल को यह प्रेमी मिलने का अत्यन्त हर्ष हो तो! परन्तु अफसोस की बात यह है कि प्रभु ऐसे प्रेमी लगते ही नहीं ! तोशल की म्यान देखकर कन्या समझ गयी कि प्रेमी आया लगता है। वह मन में अत्यंत हर्षित होती है । कुमार के सामने देखकर कहती है, 'मनमोहन' ! खड़ी होकर कुमार को आसन पर बिठाकर उसके सामने बैठती है। राजकुमार अब उसे कहता है, 'स्वामिनी ! तुझे मेरी कसम! सच बता, तू क्या सोच रही है?' देखिये कन्या क्या जवाब देती है! . 'सीलं सलाहणिज्जं , तं पुण सीलाओ होज्ज दुगुणं व । सीलेण होइ धम्मो , तस्स फलं तं विय पुणो वि ॥' अर्थात् 'शील प्रशंसनीय है और शील तो शील से दुगुना होता है। शील से धर्म होता है और उसका फल भी शील ही है।' कितनी सुन्दर बात की? (१) शील से शील बढ़ता है, क्योंकि शुरुआत में कुछ प्रसंगोंमें कसौटी आने पर शील को टिकाये रखनेवाले को इसकी दिलचस्पी जगती है, जिससे बाद में कई प्रसंगों में वह शील को टिकाये रखता है। शील-भंग करनेवाले को न संकोच होता है, न शरम ! इसलिये बाद में धर्म-भ्रष्ट ब्राह्मणी शूद्र से भी ज्यादा नीचीवाली बात होती है। अधिकाधिक शीलभंग होता है, तब शील को बचाकर रखनेवाले को बहुत संतोष होता है कि 'चलो, अच्छा हुआ। बच गये ! इसके बाद आगे भी शीलरक्षा करने के लिये शूरता पैदा होती है। इस प्रकार शील से शील बढ़ता है। (२) शील से ही धर्म है। शील के बिना अन्य व्रत-नियमों की कोई कीमत 8888888888868686868686 १७७ 888888888886868686868 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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