Book Title: Kuvalayamala Part 2
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 187
________________ उ. - परन्तु यह विचारधारा ही गलत है। क्योंकि यह विचारधारा सिर्फ संसारद्रष्टि विचारधारा है। क्योंकि इन्सान यह मान बैठा है कि 'जन्म लेना, बड़े होना, वासनाओं का पोषण करना व आयुष्य पूर्ण होने पर मर जाना, यही सब कुछ है। विचार कीजिये ! 'सारी दुनिया वासना का पोषण करती है और वासना तो सहज है, इसलिये इसका पोषण करने में कुछ अनुचित नहीं', यह हिसाब रखा हो, तो इसके पीछे द्रष्टि कैसी होती है ? सिर्फ शरीर के सुख ही देखने की या और कुछ ? सिर्फ शरीर - सुखों पर नजर रखने से कामसेवन में कुछ अयोग्य नहीं लगता । परन्तु यह समझने की बात है कि मानवदेह में सुख-सन्मान मानवदेह की विडंबना है । इसके तीन कारण हैं : (१) देह के सुख-सन्मान में आत्मा का भान भूला दिया जाता है । ( २ ) इस सुख-सन्मान में दुश्मन कर्म का दयापात्र बनना पड़ता है । (३) मजे से इसका उपभोग करने में वासना का रोग बढ़ता है । कहिये, ये तीन बातें नजर के समक्ष हों, तो विषय सुख विडंबनारुप न लगेंगे ? 'मानव भव में देह के सुख-सन्मान देह की विडंबना है', यह न समझने से सुवर्णदेवी पति के विरह में वासना के विचार पर अंकुश नहीं रखने से कहाँ पहुंची ? वह राजकुमार से कहती है.. 'बारह - बाहर वर्ष बीत गये, परदेश गये हुए पति का कोई अतापता नहीं, इसलिये शील के विचार छूट गये । खानदान, वडिल, धर्म-आज्ञा सब कुछ भूला बैठी और मन में होने लगाकि क्लेश भरे संसार में प्रिय-समागम के बिना दूसरा सुख क्या है ? सुख तो सिर्फ प्रिय के समागम में है, परन्तु मैं बदनसीब हूं, के वह सुख मुझे कहाँ से हो ? सचमुच मेरा जीना निरर्थक है। इस तरह जीने से क्या फायदा ? वासना के गुलाम बने हुए जीव की कैसी कंगाल दशा है ! उसे संसार में प्रियसंयोग सुख लगता है। 'शील में सुख नहीं, धर्म में सुख नहीं, परोपकार में सुख नहीं और सुख वासना की तृप्ति में !' कैसी लालसा ? हाथ में आये हुए अनमोल मानवजीवन की यही कीमत आंकी है ? बेचारी सुवर्णदेवी भटक गयी है, इसलिये सुख-साधन रुप प्रिय-समागम न मिलने से स्वयं को बदनसीब मान रही है व दुःख-भरे संसार में सिर्फ प्रिय-समागम में सुख मान रही है । इन्सान वासना का गुलाम बनने के बाद कितना नीचे गिर जाता है ? कैसी पागलपन - भरी मान्यताओं का शिकार बनता है ! कैसे नीचे स्तर पर उतर जाता है ? कन्या को अब धीरज न रही। मन में लगा कि 'प्रिय-समागम न मिले, तो जीने से क्या फायदा ? वह कुमार से कहती है, कन्या का आगे का वक्तव्य :- 'इस तरह विचार करके जीवन लीला समाप्त १८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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