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सुवर्णरस मुझे नहीं चाहिये।
(लोभ महा भयंकर : लोभ से अग्नि-प्रवेश :
धर्मनंदन आचार्य महाराज कहते हैं, 'लोभवश जीव पतंग की तरह अग्नि में भी प्रवेश करता है और मछली की तरह समुद्र में भी प्रवेश करता है।'
लालची लोग जहाज लेकर समुद्र में सफर करते हैं । लोभवश कई इन्सान जान की बाजी लगाकर रत्न लाने के लिये समुद्र में डूबकी लगाते हैं । लोभ ऐसा तो कितना कुछ करने को इन्सान को मजबूर करता है। इसीलिये मुनि लोभ से बचने के लिये चारित्र लेकर एकान्त अनर्थकारी लोभ के अंश को भी मन में घुसने नहीं देता । चारित्र पालना है न? चारित्र अर्थात् सर्वत्याग, इसका पालन करना हो, तो थोड़ा भी लोभ-राग-ममता कैसे रखा जाय? इन्हें मन में कैसे प्रवेश करने दिया जाय?
धर्मनंदन आचार्य महाराज राजा से कहते हैं - 'लोभ तो द्रव्य का भी नाश कराता है और मित्र का भी घात कराता है, दुःख में गिराता है। इसीका यह जीता-जागता द्रष्टान्त है।'
राजा पूछता है - 'प्रभु ! कौन है वह मनुष्य?'
आचार्य महाराज ने कहा - 'यह तेरे पीछे व वासवमंत्री की बायीं और बैठा है न? वह अति दुर्बल कायावाला लोभदेव ।'
JAMONOMIRROWANORAMAYA
लोभदेव का द्रष्टान्त राजा ने उसका वृत्तान्त पूछा, तब आचार्य महाराज फरमाते हैं :
इस जंबूद्वीप में भरत क्षेत्र में बीच में वैताढ्य पर्वत है । उसके दक्षिण भाग में मध्यरवंड़ में उत्तरापथ देश है। इसमें तक्षशिला नामक नगरी है। ऋषभदेव भगवान के समवसरण से पवित्र बनी हुई इस नगरी में कोई कायर, लालची, दुष्ट, मूर्ख, ईर्ष्यालु नहीं दिखता। नगरी गंभीर और बाहर से किसीको अन्दर घुसने के लिये मजबूत होने से सज्जन
जैसी है। सज्जन के दिल गंभीर होते हैं और दूसरों के रहस्य उसके पेट में इस तरह से उतरे होते हैं कि कोई उसमें उतरकर उन रहस्यों को पा नहीं सकता। ऐसी इस नगरी के नैऋत्य कोने में उच्चस्थल नामक गांव है। उसमें यह धनदेव एक सार्थवाह-पुत्र के रुप में जन्मा था। बड़ा होने पर वह बहुत लोभी, मायावी, असत्यप्रेमी व परद्रव्य हरण करनेवाला चोर बन गया। उसके लोभ को देखकर गांव के युवकों ने उसका नाम लोभदेव रखा।
देखिये तो सही ! बड़े सेठ का पुत्र है, पिता, अच्छे हैं, फिर भी पुत्र ऐसा लालची है और लालच के साथ ही माया-झूठ-चोरी के पाप भी करता है। आप पूछेगे कि...
प्र. - आम में से आम व बबुल में से कांटे उगते हैं, तो यहाँ अच्छे पिता का पुत्र बुरा कैसे पका?
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